1. उत्तर पूर्व की हमारी अद्भुत यात्रा
2. दिल्ली – मिरिक होते हुए दार्जिलिंग
3. दार्जिलिंग भ्रमण
4. दार्जिलिंग से कलिम्पोंग, नामची – चारधाम
5. गंगटोक
6. शिलौंग – चेरापूंजी
7. गुवाहाटी – कामाख्या देवी दर्शन – दिल्ली वापसी
अभी तक आपने पढ़ा कि हम सहारनपुर से गाज़ियाबाद पहुंचे, और अगले दिन सुबह छः परिवार अर्थात् 12 व्यक्ति गाज़ियाबाद से दिल्ली एयरपोर्ट पहुंचे जहां से हम बागडोगरा की फ्लाइट पकड़ कर सिलीगुड़ी (पश्चिम बंगाल) पहुंचे। वहां हमारी इंतज़ार में 2 इनोवा टैक्सी पहले से मौजूद थीं जो हमें लेकर मिरिक पहुंचीं जहां हमने सुमेन्दु लेक पर घंटे भर मस्ती की। मिरिक से दार्जिलिंग यात्रा में दोनों ओर चाय के बागों के हसीन नज़ारे का आनन्द लेते हुए हम लगभग 7 बजे दार्जिलिंग जा पहुंचे जहां सन् 1902 के शानदार होटल सैंट्रल हैरिटेज में हमारे छः कमरे बुक किये गये थे। डिनर और उसके बाद रात को मार्किट में घूमने फिरने के बाद हम वापिस होटल में आगये और सुबह टाइगर हिल जाने के लिये तीन बजे का अलार्म लगा कर सो गये। अब आगे!
टाइगर हिल को प्रस्थान
सुबह अलार्म से तीन बजे आंख खुलीं तो इतने सर्द मौसम में रज़ाई से बाहर निकलने का मन तो नहीं हुआ पर फिर ये सोच कर कि अपने घर से हज़ारों मील दूर यहां दार्जिलिंग में हम रज़ाई में दुबके रहने के लिये थोड़ा ही आये हैं, हिम्मत करके उठ गये। वैसे भी मई का महीना होने के कारण कोई ऐसी भयंकर सर्दी थी भी नहीं। नहा – धोकर फटाफट तैयार हुए और होटल से बाहर निकल आये। हमारे दो-तीन साथी हमसे भी पहले सड़क पर मौजूद थे और पांच – सात मिनट में ही हम सभी 12 लोग सड़क पर अपनी टैक्सी की प्रतीक्षा करने लगे जो अभी तक आई नहीं थीं। चार बजे के लगभग एक टैक्सी पास आकर रुकी तो हमारे साले साहब ने छः लोगों को उसमें बैठने का निर्देश दिया और कहा कि आप लोग पहुंचो, दूसरी टैक्सी आये तो हम भी पहुंचते हैं।
भारत के उत्तर-पूर्व में स्थित होने के कारण दार्जिलिंग में सूर्योदय लगभग आधा घंटा पहले ही हो जाता है और सूर्यास्त भी आधा घंटा पहले होता है। जब हम लगभग २० मिनट की चढ़ाई चढ़ते हुए टाइगर हिल के पास पहुंचे तो सूर्योदय होने में कुछ ही समय शेष था और आगे बेतरतीब ढंग से खड़ी हुई टैक्सियों के कारण मार्ग बन्द था सो हमारी टैक्सी को कुछ पहले ही रोक देना पड़ा। हम फटाफट कार में से कूद कर टाइगर हिल की ओर बढ़े। कुछ दूर चल कर एक पगडंडी ऊपर पहाड़ की ओर जाती दिखाई दी जिस पर सैंकड़ों पर्यटक ऊपर की ओर बढ़े चले जा रहे थे। हम भी तेज़ तेज़ कदमों से उसी पगडंडी पर आगे बढ़े। मुझे सूर्योदय के चित्र लेना बहुत महत्वपूर्ण लग रहा था, अतः मैं बाकी पांच लोगों को पगडंडी पर धीरे – धीरे आता हुआ छोड़ कर तेजी से जब तक ऊपर पहुंच पाया, आकाश में सूर्य प्रकट होने लगा था। पर समस्या ये थी कि उस पहाड़ी पर मुझ से आगे सैंकड़ों लोग पहले से ही मौजूद थे और मैं अपने छः फुटे कद के बावजूद विशेष कुछ नहीं कर पाया। बादलों के कारण वैसे भी कुछ बहुत आकर्षक दृश्य देखने को नहीं मिल रहा था। अपने दोनों हाथ अधिकतम ऊंचाई पर लेजाकर भी दो – चार चित्र ही खींच पाया।
जब चित्र लेने का कार्य समाप्त हुआ तो उस भीड़ में अपनी साथियों को ढूंढना भी महाभारत होगया। और जब द्स-पन्द्रह मिनट बाद वह मिले भी तो सबके मुंह फूले हुए थे क्योंकि मैं उनको पीछे छोड़ कर आगे जो भाग आया था और वह ऊपर पहाड़ी पर आकर भी मुझे ही खोजते रहे थे। पर मुझे मेरे गुरुजी ने सिखाया था कि घरवालों की नाराज़गी को पांच – दस मिनट की ही होती है, उस नाराज़गी के डर से कुछ अच्छे चित्र मिलने के अवसर को कभी नहीं गंवाना चाहिये! हे-हे-हे !
टाइगर हिल से वापसी
टाइगर हिल पर सूर्योदय का दृश्य, भीड़ – भाड़ में जैसा भी दिख पाया, देखने के बाद हमने सोचा कि अब यहां से दार्जिलिंग का विहंगम दृश्य भी दिख जाये तो पैसे वसूल हो जायेंगे पर मौसम ने हमारा साथ नहीं दिया। कोहरे के कारण कुछ नज़र नहीं आ रहा था, अतः हम आहिस्ता – आहिस्ता वापिस नीचे टैक्सी तक पहुंच गये। यहां कोहरा तो नज़र नहीं आया, पर वहां का हाल ही अजब था। हमने जिस स्थान पर अपनी टैक्सी सड़क पर छोड़ी थी, उसके बाद कम से कम दो – तीन सौ टैक्सी और उसके पीछे आकर लग चुकी थीं और वह सभी कायदे से एक के पीछे एक खड़ी नहीं की गयी थीं। आधी सड़क के बाईं ओर थीं और आधी दाईं ओर और इस प्रकार न तो कोई वाहन ऊपर आ सकता था, और न ही नीचे जा सकता था – जब तक कि सबसे नीचे वाले वाहन वापिस जाना शुरु न करें। हमारे बाद पहुंचने वाली सैंकड़ों टैक्सियों में एक टैक्सी हमारे बाकी सहयात्रियों की भी थी जिनको हम होटल पर टैक्सी की इंतज़ार करता हुआ छोड़ आये थे। एक संकरी पहाड़ी सड़क पर यदि पांच – सात सौ 7- सीटर टैक्सी कार ट्रैफिक को पूरी तरह से जाम कर दें तो फिर आप समझ ही सकते हैं कि सबसे पहले आये हुए लोग तो सबसे अन्त में ही जा पायेंगे।
जब मुझे लगा कि यहां टैक्सी के पास खड़े रहने का कोई उपयोग नहीं है तो मैं अपना कैमरा संभाल कर पैदल ही नीचे की ओर चल पड़ा और सहयात्रियों को कह दिया कि मैं कहीं रास्ते में सड़क पर ही खड़ा हुआ मिल जाऊंगा। रास्ते में पहाड़ी पहिलाएं बड़े – बड़े थर्मस में कॉफी बेचती हुई मिलीं तो 20 रुपये का एक पेपर कप मैने भी भरवा लिया और सुड़कते हुए सड़क पर चलता रहा। करीब आधा – पौने घंटे बाद मुझे अपनी वाली टैक्सी आती हुई दिखाई दी जो मुझे लेते हुए आगे बढ़ चली!
बतासिया लूप
हमारा अगला पड़ाव था – बतासिया लूप! हां, एक बात बताना तो भूल ही गया। चूंकि दूसरी टैक्सी वाले हमारे सहयात्री टैक्सियों के द्वारा लगाये गये जाम के कारण बहुत नीचे ही अटक गये थे और सूर्योदय हो ही चुका था, अतः उन लोगों ने कई किलोमीटर पैदल चल कर ऊपर टाइगर हिल तक आना व्यर्थ मानते हुए अपनी गाड़ी वहीं से घुमा ली थी। फोन पर हमारी बातचीत हुई तो उन्होंने कहा कि अब वह बतासिया लूप भी देख चुके हैं और होटल वापिस जा रहे हैं। हम भी बतासिया लूप देखते हुए होटल ही आ जायें।
इस दार्जिलिंग यात्रा का कार्यक्रम हमने फरवरी में निश्चित किया था और तीन माह बाद मई में वहां जाना हुआ। इन तीन महीनों में मैने उत्तर पूर्व के बारे में काफी कुछ पढ़ने व समझने की कोशिश की थी, हम जिन – जिन दर्शनीय स्थलों पर जाने वाले हैं, उनके बारे में जानने की विशेष तौर पर कोशिश रही ताकि जब उस स्थान के साक्षात् दर्शन हों तो उसका पूरा आनन्द लिया जा सके। बतासिया लूप के बारे में इंटरनेट पर पढ़ कर और चित्र देख – देख कर मुझे बहुत उत्सुकता हो रही थी। मुझे इस बात का भी कष्ट था कि हमारे टूर कार्यक्रम में दार्जिलिंग रेल जिसे toy train कहते हैं, उसकी यात्रा शामिल नहीं है। न्यू जलपाईगुड़ी से दार्जिलिंग तक की पूरी यात्रा इस ट्रेन से करना यदि संभव न भी हो तो भी, दार्जिलिंग स्टेशन से लेकर घूम स्टेशन तक की छोटी यात्रा तो करनी ही चाहिये।
बतासिया लूप दो वज़ह से आकर्षण का केन्द्र बना हुआ है। पहला कारण तो यह कि यहां toy train के लिये एक double spiral loop है, जिसको बनाने का उद्देश्य यही था कि ट्रेन को दो बार पूरा 360 डिग्री घुमाते हुए बहुत कम दूरी की यात्रा में बहुत अधिक ऊंचाई पर ले जाया जा सके। यही होता भी है! ट्रेन दार्जिलिंग स्टेशन से घूम स्टेशन तक की छः किलोमीटर की यात्रा में लगभग 1000 फीट की चढ़ाई चढ़ जाती है और यह कमाल बतासिया लूप के सहारे होता है।
बतासिया लूप का दूसरा आकर्षण यह है कि यहां पर बहुत खूबसूरत पार्क के मध्य में गोरखा सिपाहियों की स्मृति में एक युद्ध स्मारक बनाया गया है।यदि हम सुबह आठ बजे से पहले बतासिया लूप पहुंच जायें तो एक और अजीबोगरीब दृश्य यहां दिखाई देता है। ट्रेन के रास्ते पर ही, यानि रेल की पटरियों के ऊपर ही हैण्डीक्राफ्ट मार्किट लगा हुआ मिलता है।
यानि, जब तक ये मार्किट लगा हुआ हो, कोई भी ट्रेन न तो दार्जिलिंग से घूम तक आ सकती है और न ही जा सकती है। ट्रेन का ड्राइवर हाथ जोड़ कर दुकानदार महिलाओं से विनती करेगा कि हे मातृशक्ति, हम पर और हमारी ट्रेन में बैठे इन यात्रियों पर दया करो और हमें आगे जाने दो। अगर आपने बर्फी फिल्म देखी हो तो उसमें कई स्थानों पर दिखाई देता है कि ट्रेन सड़क पर बनी हुई रेल पटरी पर चली आ रही है और दार्जिलिंग के दुकानदार ट्रेन को रास्ता देने के लिये फटाफट अपना सामान समेटते हैं और ट्रेन के जाने के बाद दुकानदारी पुनः वहीं की वहीं। यह मार्ग अतिक्रमण की पराकाष्ठा है पर दार्जिलिंग में ट्रेन के लिये यह सब होता देख कर गुस्सा नहीं आता बल्कि इंसान दांतों तले उंगली दबा लेता है।
बतासिया लूप का टिकट खरीद कर (शायद 15/- प्रति व्यक्ति) हम सब ऊपर पहुंचे तो लगभग 7 बजे होंगे पर वहां तो पूरा मेला ही लगा हुआ दिखाई दिया। रेल की पटरियों पर लगी हुई खूब सारी दुकानें, रंग बिरंगे ऊनी वस्त्र और हैंडीक्राफ्ट का ढेर सारा सामान बेचने और खरीदने वाले वहां मौजूद थे। पार्क की खूबसूरती भी लाजवाब! खूब सारी फोटो खींच कर घंटे भर में हम वापिस नीचे उतर आये। टैक्सी करीब एक किमी आगे रुकी हुई हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। यहां आते समय हम घूम मोनास्ट्री के आगे से आये थे पर वहां पर टैक्सी पार्किंग के लिये कोई स्थान उपलब्ध नहीं था और किसी को भी मोनास्ट्री देखने की इतनी उत्सुकता भी नहीं लग रही थी कि एक दो किमी आगे कार खड़ी करके वापस पैदल मोनास्ट्री देखने के लिये आयें। भूख भी लग आई थी, अतः जल्द से जल्द होटल पहुंचने का मन कर रहा था।
होटल में पहुंच कर सबने नाश्ता किया जो हमारे किराये में ही शामिल था। उसके बाद हम सब ने अपना सामान पैक करके लॉबी में रखवाया और कमरों को खाली कर दिया। इस बार हम चल पड़े पद्मजा नायडू चिड़ियाघर की ओर!
पुरानी यादें ताज़ा हो गयी । हमे तो बादलों ने सूर्योदय देखने ही नही दिया । हाँ, लेकिन बतासिया लूप से कंचनजंघा का खूबसूरत नजारा जरूर देखने को मिला ।
मुकेश पाण्डे जी, आपका बहुत बहुत आभार कि आप इस ब्लॉग तक आये और इस पोस्ट को पसन्द किया। कृपया आते रहें !
सादर,
सुशान्त सिंहल
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इतने दिनों के बाद यात्रा चली , और मन मोह लिया।
प्रिय वशिष्ठ जी, आपका हार्दिक आभार ! देरी से उत्त्तर देने के लिये क्षमा याचना। अब आपको कमेंट प्रकाशन हेतु स्वीकृति की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। एक कमेंट प्रकाशित हो जाने के बाद अगले कमेंट स्वयमेव स्वीकृत हो जाते हैं।
सुंदर स्थान की खूबसूरत जानकारी….आगे की कड़ियों का इंतेज़ार ।
प्रिय डॉक्टर प्रदीप त्यागी,
24 दिसंबर तक डा. प्रदीप त्यागी मेरे लिये सिर्फ एक नाम था, पर अब यह एक अनूठे मित्र का नाम है जिनके सरल स्वभाव, विनम्रता (और भी न जाने क्या क्या) का मैं कायल हो चुका हूं। आप यहां आये, अपने कमेंट दिये पर मैंने ही इन कमेंट्स को कल रात देखा। देरी से स्वीकृति के लिये क्षमा याचना। अब आगे मेरी स्वीकृति की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
ये लेख पढ़कर मेरी यादे ताजा हो गयी, बहुत अच्छा लगा पढ़कर …. पर अफ़सोस ये हुआ की अत्यधिक भीड़ और कोहरे के वजह से आप लोगो को महान कंचनजंघा के दर्शन न तो टाईगर हिल से हुए और न ही बताशिया लूप से …. अरे टाइगर हिल से तो माउंट एवरेस्ट भी नजर आता है…. कोई न आप इनके दर्शन आप मेरे ब्लॉग से कर लीजिये…. घूम मोनेस्ट्री का कोई फोटो नही लगाया आपने …?? मैं तो कहूँगा की सीजन में घूमने का मजा नहीं आता इन जगहों पर ….बाकी सब बढ़िया …..सड़क किनारे ट्रेन चलती हुई हमने देखि थी …
जब मैं दार्जीलिंग के बाज़ार में घूम रहा था तो हेस्टी टेस्टी देखते ही मुझे आपकी याद हो आई थी। पर वहां घूमने का बहुत कम समय मिल पाया, ये अफ़सोस रहा। चलो, फिर कभी दोबारा भी जायेंगे। सिक्किम तो बार – बार बुलाता है। धन्यवाद आपका कि आपने ये पोस्ट न केवल पढ़ी बल्कि कमेंट भी दिया।
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शानदार यात्रा चल रही ह ,हम भी साथ ह,बतिसिया लूप की जानकारी बहुत अच्छी लगी
इसके आगे लिखना अभी बाकी है! जल्द ही लिखूंगा! वैसे tripoto.com पर लगभग पूरी सिरीज़ अंग्रेजी में लिख चुका हूं। पर यहीं लिखूंगा और हिन्दी में लिखूंगा। मुझे हिन्दी में ही ज्यादा सुख मिलता है।