दोस्तों ! 5 जनवरी 2020 मेरे लिये एक यादगार दिन सिद्ध हुआ। इस दिन मुझे महरौली यानि के दिल्ली के सबसे पुराने नगरों में से एक का अंतरंग परिचय प्राप्त हुआ। इससे पहले मैं महरौली को सिर्फ कुतुब मीनार की वज़ह से जानता था। पर आज मैं आपको महरौली के एक और महत्वपूर्ण आकर्षण के बारे में बता रहा हूं और वह है – जैन मंदिर दादाबाड़ी।
जैन मंदिर दादाबाड़ी जाने के लिये कुतुब मीनार मैट्रो सबसे निकट और सबसे सुविधाजनक उपाय है। कुतुब मीनार मैट्रो स्टेशन से बाहर निकलते हैं तो एक बिल्कुल नया बना हुआ ओवरब्रिज दिखाई देता है जिसमें सीढ़ियों के अलावा लिफ़्ट भी है। इस सेतु के सहारे हम सड़क के उस पार पहुंच जाते हैं।
थोड़ा सा ही आगे बढ़ें तो हमें एक सुनसान सी सड़क दिखाई देती है जिस पर जैन मंदिर दादाबाड़ी का बोर्ड भी लगा मिल जाता है। इस सड़क पर चलते हुए शुरु से ही ऐसा आभास होने लगता है कि महरौली किसी पहाड़ी पर बसा हुआ शहर है।
दोस्तों, कुछ ही कदम चलते चलते हमें ये अहसास हो जाता है कि इस सड़क पर बहुत सारे अंधे मोड़ यानि ब्लाइंड कर्व्स हैं और ये सड़क सुनसान भी नहीं है। इस सड़क पर एक के बाद एक प्राचीन स्मारक दिखाई देते रहते हैं जिनको देख कर फोटो खींचने का मन करता रहता है, ऐसे में आती – जाती कारों से स्वयं को और खास कर यदि आपके साथ बच्चे भी हैं तो उनको बचाना अत्यावश्यक है।
ऐसे ही एक मोड़ पर मुड़ते ही सामने दीवार पर लिखा हुआ दिखाई देता है – जैन मंदिर दादाबाड़ी ! और पास जाओ तो जैन मंदिर का आकर्षक प्रवेश द्वार दिखाई दे जाता है जिसके सामने सड़क के उस पार जूते – चप्पल रखने के लिये जूता घर मौजूद है जो निःशुल्क है। आप यहां पर जूते – चप्पल उतार कर, हाथ धोकर मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं।
ये तो आप जानते ही होंगे कि जैन धर्म की दो शाखाएं हैं – दिगम्बर और श्वेतांबर! जैन मंदिर दादाबाड़ी श्वेतांबर पंथ का मंदिर है। श्वेतांबर यानि श्वेत वस्त्र धारण करने वाले। दिगम्बर यानि वस्त्र त्याग करने वाले। जो जैन मुनि कोई भी वस्त्र धारण नहीं करते हैं वह दिगंबर संप्रदाय के हैं और जो श्वेत वस्त्र पहनते हैं, वह श्वेतांबर संप्रदाय से हैं।
अब आपको थोड़ा सा दादाबाड़ी के बारे में भी बता दूं। बताया जाता है कि महरौली स्थित दादाबाड़ी मंदिर दादा गुरु मणिधारी जिनचन्द्र सूरी जी के इस स्थान पर देहत्याग के बाद उनकी पावन स्मृति में बनाया गया है। पूरे विश्व में तीन प्रमुख दादाबाड़ी हैं जो अजमेर, मालपुरा और महरौली में हैं और श्वेतांबर जैन धर्म के खरतारा गच्चा संप्रदाय के चार गुरुओं की पुण्यभूमि हैं। दादागुरु मणिधारी जिनचन्द्र सूरी जी का जन्म सन् 1140 ईसवीं में जैसलमेर के विक्रमपुर नामक स्थान पर हुआ था और सन् 1166 में, यानि 26 वर्ष की पूर्ण युवावस्था में आपने महरौली में, जो उन दिनों योगिनीपुर के नाम से जाना जाता था, इसी स्थान पर देहत्याग किया था। बाल्यकाल से ही अपने अलौकिक ज्ञान के कारण वह जैन समाज में गुरु पद पर आसीन हुए और अपने मतावलंबियों को सत्य, अहिंसा, भाई चारे, सर्वधर्म समभाव का संदेश देते रहे।
हालांकि, ये जैन मंदिर है पर वहां किसी ने हमसे ये जानने का प्रयास नहीं किया कि हम किस धर्म को मानते हैं, मानते भी हैं या नहीं! परम्परागत रूप से, यहां पर सभी धर्मावलंबियों का खुले दिल से स्वागत किया जाता है।
जैन मंदिर दादाबाड़ी में प्रवेश करते ही हम कला और आध्यात्म की एक नयी दुनियां में प्रवेश कर जाते हैं। पूरे मंदिर में दीवारों और स्तंभों पर सफ़ेद मार्बल की नक्काशी मन मोह लेती है। जैन मंदिरों में रंग बिरंगे कांच की सज्जा वैसे भी विश्व भर में अपना एक विशेष स्थान रखती है।
जैन मंदिर दादाबाड़ी में यदि हम और अंदर की ओर बढ़ें तो कृत्रिम पहाड़ियां, गुफा और सीढ़ियां देखने लायक हैं। खास कर बच्चे तो उन पहाड़ियों, सर्पिलाकार मार्गों और गुफाओं को बहुत ही अच्छा खेल मानते हैं। इस पूरे मंदिर की वास्तुकला, यहां का पावन व शान्त वातावरण ऐसा है कि यहां से कहीं और जाने का मन ही नहीं करता। बस ऐसा लगता है कि यहीं कुछ दिन शांति से व्यतीत करते हुए खुद से साक्षात्कार किया जाये। ऐसे में स्वाभाविक ही है कि जो जैन तीर्थयात्री यहां पर रुकना चाहते हैं, उनके लिये ए. सी. व नॉन ए. सी. कमरे व भोजन की व्यवस्था बहुत ही कम मूल्य पर यहां उपलब्ध हैं।
अगर आप कला और आध्यात्म में रुचि रखते हैं और कुछ समय बहुत सात्विक, शान्त व पावन वातावरण में बिताना चाहते हैं तो मैं निस्संकोच रूप से आपको महरौली में मौजूद इस तीर्थ स्थल के दर्शन का सुझाव दूंगा। बस इतना ध्यान अवश्य रखें कि आप की उपस्थिति किसी अन्य के लिये असुविधा का कारण न बने और न ही यहां की पवित्रता भंग हो।
बढिया जानकारी।