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जयपुर दर्शन – जयगढ़ दुर्ग

नाहरगढ़ से जयगढ़ जाने हेतु सड़क

नाहरगढ़ से जयगढ़ जाने हेतु सड़क

नाहरगढ़ से जयगढ़ दुर्ग जाते समय हमें कुछ युवक घाटी की फोटो खींचते हुए नज़र आये।

नाहरगढ़ से जयगढ़ दुर्ग जाते हुए हमें कुछ युवक घाटी की फोटो खींचते हुए नज़र आये।

आज यानि 29 फरवरी 2016 को जयपुर यात्रा के तीसरे दिन हम सुबह होटल सारंग पैलेस से  टैक्सी लेकर नाहरगढ़ दुर्ग और जयगढ़ दुर्ग देखने के लिये निकले थे।  नाहरगढ़ दुर्ग का विवरण आप पढ़ ही चुके होंगे।[/caption]

नागरगढ़ दुर्ग देखने के बाद अब नंबर था जयगढ़ दुर्ग का। दोनों किलों को जोड़ने के लिये पहाड़ी के ऊपर ही बिल्कुल सीधी सड़क है जिसकी लंबाई 5.8 किमी है और हमारी टैक्सी लगभग 15 मिनट में ही पहुंच गयी थी जबकि हमने रास्ते में कुछ मिनट रुक कर घाटी के चित्र भी खींचे थे। कुछ युवकों को घाटी के चित्र खींचते देख कर मुझे भी उत्सुकता हुई कि शायद यहां से जयपुर का सुन्दर दृश्य दिखाई देरहा होगा। कार से उतर कर जब नीचे झांक कर देखा तो दूर पानी में तैरता हुआ सा जल महल दिखाई दिया।

जयगढ़ रोड से दिखाई देता हुआ जलमहल !

जयगढ़ रोड से दिखाई देता हुआ जलमहल !

जल महल का कुछ और नज़दीक से लिया गया चित्र

जल महल का कुछ और नज़दीक से लिया गया चित्र

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जयगढ़ दुर्ग की ओर जा रही सड़क । दाईं ओर लाल पत्थर की प्राचीर दिखाई देरही है।

Jaigarh-Amer Fort map ऊपर जयगढ़ दुर्ग और 400 मीटर नीचे आमेर दुर्ग और उससे भी नीचे मोठ लेक दिखाई दे रही हैं।

जयगढ़ दुर्ग “चील का टीला” (Hill of Eagles)  नामक पहाड़ी पर स्थित है और जैसा कि आप ऊपर सैटेलाइट नक्शे में देख सकते हैं, जयगढ़ दुर्ग के नीचे आमेर दुर्ग मौजूद है और एक दुर्ग से दूसरे दुर्ग तक जाने के लिये गुप्त रास्ता था, यह बताया जाता है। यह सुरंग पर्यटकों के लिये अनुपलब्ध है।

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यह वाहन पार्किंग आमेर दुर्ग से कुछ ही पहले है और साउंड एंड लाइट शो देखने वाले पर्यटक यहां वाहन छोड़ कर आगे पैदल जाते हैं।

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जयगढ़ दुर्ग से नीचे आमेर दुर्ग और माउथा लेक दिखाई दे रही हैं ! ये दोनों किले आपस में जुड़े हुए भी हैं।

जयगढ़ दुर्ग की प्राचीरों से जयपुर की ओर / या दुर्ग की ओर बढ़ रही किसी सेना को बहुत दूर से देखा जा सकता है और समय रहते चेतावनी भेजी जा सकती है।  वैसे जयगढ़ दुर्ग आज तक अविजित ही रहा है।   इस दुर्ग का सबसे प्रमुख आकर्षण यहां मौजूद विश्व की सबसे बड़ी तोप जयवाण है।

[caption id="attachment_259" align="alignnone" width="1024"]DSC_3443 जयगढ़ दुर्ग में प्रवेश हेतु टिकट खिड़की ! कार हेतु टिकट लेकर कार भी भीतर ले जा सकते हैं।

जयगढ़ दुर्ग के प्रवेश द्वार पर पहुंच कर हमने अपने लिये, अपनी टैक्सी और कैमरों के लिये टिकट खरीदे।  यदि आपने कार के लिये भी टिकट लिया है तो आप लगभग उस चोटी तक कार से जा सकते हैं जहां पर जयवाण तोप प्रदर्शन हेतु रखी गई है।   इस स्थान पर पहुंच कर हमने टैक्सी को वापिस नीचे भेज दिया और ड्राइवर को कह दिया कि वह हमारी वहीं रह कर प्रतीक्षा करे।   हमने कोई गाइड इत्यादि नहीं लिया था और इसी कारण जयगढ़ दुर्ग के कुछ आकर्षण हम देखने से चूक भी गये।

जयगढ़ दुर्ग में जयवाण तोप की ओर जाने वाली सड़क !

जयगढ़ दुर्ग में जयवाण तोप की ओर जाने वाली सड़क !

यह कार जयवाण तोप की ओर जारही है।

यह कार जयवाण तोप के प्रदर्शन स्थल डूंगर दरवाज़ा की ओर जारही है।

जयवाण तोप

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डूंगर दरवाज़ा पर स्थित जयवाण तोप

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जयवाण तोप का पृष्ठ भाग ! इस तोप को हाथियों के सहारे से हिलाया डुलाया और एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जाता था।

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सन्‌ 1720 में महाराणा जयसिंह द्वितीय द्वारा ढलवाई गई 50 टन वज़न की तोप।

विकीपीडिया के अनुसार जयवाण तोप के बारे में तकनीकी जानकारी निम्नप्रकार से है:

  • तोप का वज़न : 50 Ton
  • बैरल की लंबाई : 6.15 मीटर (20.2 फीट)
  • बैरल का बोर : 28 सेमी.
  • बैरल को ऊंचा / नीचा करने हेतु स्क्रू : 776 मिलीमीटर (30.6 इंच)
  • बड़े पहियों का व्यास : 2.74 मीटर
  • छोटे पहियों का व्यास : 1.37 मीटर

बताया जाता है कि 50 किलोग्राम वज़न के गोले को 100 किलो बारूद के सहारे दागा जाता था। यह गोला कितनी दूर तक जा सकता था, इसको लेकर अनेक किंवदंतियां प्रचलित हैं। कुछ लोगों का विचार कि इस तोप से 40 किलोमीटर की दूरी तक गोले दागे जा सकते थे, अतिश्योक्ति ही लगती है। अन्य अनुमान 35 किमी /22 किमी / 11 किमी के आस-पास ले जाते हैं।  कुछ और भी मनोरंजक कथाएं इस तोप के बारे में प्रचलित हैं।  जैसे, मिर्ज़ा राजा जय सिंह द्वितीय ने 1720 में इसे एक बार इसकी परीक्षा लेने के लिये  दागा था और मुग़ल बादशाह मौहम्मद शाह भी उस समय मौजूद थे।  उस समय इसका मुंह चकसू की ओर रखा गया था और जहां गोला जाकर गिरा था, वहां अब एक तालाब मौजूद है।

कहा तो यहां तक जाता है कि इस तोप से गोला दागने के लिये इसे पानी के स्रोत के पास रखना आवश्यक था ताकि तोपची इस तोप से उत्पन्न झटके से बचने के लिये पानी में छलांग लगा सके।   इसके बावजूद तोपची, आठ सैनिक और एक हाथी वायु के कंपन को सहन न कर पाने के कारण मारे गये थे।   शायद यही कारण रहा होगा कि इस तोप को फिर कभी उपयोग करने की नौबत नहीं आई और इसके निर्माण पर आये खर्च को अब पर्यटकों को टिकट बेच – बेच कर पूरा किया जा रहा है।

लगभग 3 किमी लंबे और 1 किमी चौड़े जयगढ़ दुर्ग में यद्यपि कुछ महल व बाग भी मौजूद बताये जाते हैं जो हमें नज़र नहीं आये पर यह सत्य है कि जयगढ़ दुर्ग को राजाओं और रानियों के सुविधा सम्पन्न आवासीय उपयोग के लिये नहीं बनाया गया था क्योंकि उसके लिये 400 मीटर नीचे विशाल अम्बर पैलेस पहले से ही मौजूद था।  हां, जयगढ़ दुर्ग के लिये पानी की समुचित व्यवस्था की गई थी।   अरावली पर्वत श्रंखलाओं में ही वर्षा जल के संचयन हेतु जलाशय बनाये गये थे जहां से लगभग 4 किमी लंबी नहर से जलधारा इस दुर्ग के नीचे स्थित तीन विशाल जलाशयों को भरती थी।

जयगढ़ दुर्ग के खज़ाने की कथा

एक कथा जो हर किसी के मुंह से सुनाई देती है वह जयगढ़ दुर्ग में मौजूद खज़ाने को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा हथिया लेने को लेकर है।   बताया जाता है कि वर्ष 1975 से 77 के दौरान जब इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिये देश पर आपात्काल थोप दिया था,  विपक्षी दलों के नेताओं को जेलों में ठूंस दिया था, समाचार पत्रों पर पूर्ण सेंसरशिप लगा दी थी।  उस अवधि में जयगढ़ दुर्ग में कुछ दिनों के लिये पर्यटकों के आगमन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था और मिलिट्री ट्रकों में भर भर कर सारा खज़ाना इंदिरा गांधी के आवास तक पहुंचा दिया गया था।   परन्तु यह कथा वास्तविक प्रतीत नहीं होती है। आधिकारिक रूप से जो बताया जाता है वह ये है कि आयकर विभाग ने यहां खज़ाने की खोज में जून 1976 से नवंबर 1976 के दौरान छापा मारा अवश्य है, और मैटल डिटेक्टर की सहायता से तहखानों में बहुत खोजबीन की गई थी पर कुछ नहीं मिला था।   हो सकता है जो कछवाहा शासकों के पास धन रहा हो, उसका उपयोग जयपुर नगरी के निर्माण हेतु कर लिया गया हो।

4 thoughts on “जयपुर दर्शन – जयगढ़ दुर्ग

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  2. चलत मुसाफ़िर

    इतिहास में अतिश्योक्तियों एवं किंवदन्तियों के माध्यम से सत्यता पर इतनी परत चढ जाती हैं कि सत्यता विलुप्त सी हो जाती है। भले ही उसे धो मांज कर फ़िर निकाल लिया जाए, परन्तु मजा किंवदन्तियों का ही है। जयबाण तोप के गोले से निकलने पर इतना कंपन हो ही नहीं सकता कि हाथी मर जाए। हां धमाके से कान के परदे अवश्य फ़ट सकते हैं। उम्दा चित्रों के साथ बढिया वृतांत, यादें ताजा हो गई।

    1. Sushant K Singhal Post author

      बिल्कुल सही कहा आपने! किंवदंतियां और लोक कथाएं एक अलग ही आभासी दुनिया की सृष्टि कर डालती हैं। अमृतसर में घूमते हुए एक स्थान देखा जिसके बारे में प्रचलित है कि यहां पर सीता मैया वनवान के दौरान रहीं और लव-कुश को जन्म दिया, इस रसोई में वह खाना बनाया करती थीं… वगैरा वगैरा! वहां घूमते हुए लगा कि मैं एक टाइम मशीन के सहारे एक अलग ही दुनियां में हूं।

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