प्रिय मित्रों !
यदि आपने इस यात्रा का पहला भाग पढ़ा है तो आप जानते ही हैं कि मैं कल सुबह 28 मार्च 2021 को यानि होली वाले दिन अपनी कार से सोलो घुमक्कड़ी के मूड से निकल पड़ा था और गुड़गांव – मुरादनगर – मुज़फ़्फ़रनगर – ऋषिकेश – चंबा होते हुए लगभग 350 किमी की यात्रा पूरी करके कानाताल आ पहुंचा हूं! यहां पर मैं कल शाम से Stay in Camp Kanatal नामक कैम्प में रुका हूं! अगर आप भी यहां आने का प्रोग्राम बनाने की सोच रहे हैं तो आप अपनी एडवांस बुकिंग यहां करा सकते हैं ! यहां ये ध्यान रखें कि एक चम्बा हिमाचल प्रदेश में भी है, पर हम जिस चम्बा की बात कर रहे हैं, वह उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल जनपद में है!
जहां पर ये कैम्प है, वहां सड़क पर कहीं इस गांव का नाम सौड़ लिखा दिखाई दे रहा है, तो कहीं जड़ीपानी तो कहीं कानाताल! मैं कल से ही इस पहेली को बुझाने के चक्कर में लगा हूं ! जहां तक मुझे समझ आया है, सौड़, जड़ीपानी और कानाताल एक दूसरे से लगे हुए अलग – अलग गांव हैं शायद इन तीनों गांव को सम्मिलित रूप से कानाताल नाम से ही संबोधित किया जाता है। हो सकता है कानाताल विकास खंड का नाम हो जिसमें ये तीनों गांव शामिल हों !
29 March 2021
जैसी कि मेरी आदत है, मेरी आंख सुबह 5 बजे ही खुल गयी! मौसम काफी ठंडा था सो कंबल में लेटे – लेटे ही व्हाट्सएप और फ़ेसबुक पर परिवार और मित्रों के साथ आधा – पौना घंटा बतियाता रहा! इस हट में चार सिंगल बैड एक दूसरे से सटा कर डाले गये हैं इसलिये ऐसा लग रहा है कि दो डबल बैड पर मैं अकेला लेटा हुआ हूं!
बाहर चिड़ियाओं की चीं – चीं काफ़ी तेज़ हो गयी है! मेरी हट की तिरपाल भी हवा से फ़ड़फ़ड़ा रही है, लगता है बाहर हवा के जोरदार थपेड़े लग रहे हैं! दिन भी निकल आया है, सो मैं जूते पहन कर, टैंट की चेन खोल कर बाहर निकल आया हूं! रेलिंग के पास खड़े होकर नीचे दूर तक झांकना बड़ा अच्छा लग रहा है! मैं सड़क से ऊपर Stay in Camp Kanatal में हूं, सड़क से नीचे एक और रेज़ॉर्ट नज़र आ रहा है जिस तक जाने के लिये पक्की सीढ़ियां सड़क से नीचे की ओर जाती हुई दिखाई दे रही हैं! यहां से नीचे का लैंडस्केप मन को बड़ा लुभा रहा है।
कल रात मेरे अनुरोध पर नटवर लाल भार्गव ने उबलता हुआ पानी एक थर्मस में मेरी हट में भिजवा दिया था! तुलसी – मुलेहटी वाले दस – बारह टी बैग मैं अपने साथ लाया हुआ हूं! कांच के एक गिलास में वही टी बैग और गर्मागर्म पानी डाल कर उसकी चुस्की ले रहा हूं और अपनी आंखों और कैमरे से सामने का सारा दृश्य भी सहेज रहा हूं! जीवन में अगर आनन्द है तो बस, ऐसी ही ज़िन्दगी में है! 🙂
मेरा ये मानना है कि अगर किसी नये स्थान को देखना – समझना हो तो सूर्योदय के तुरन्त बाद सुनसान सड़कों पर पैदल निकल लेना चाहिये! आज भी यही करने के लिये चार मंजिल नीचे उतर कर चंबा – मसूरी वाली सड़क पर आ गया हूं और चंबा वाली दिशा में चल पड़ा हूं! नीचे घाटी की ओर कुछ बड़े लुभावने से दृश्य दिखाई दिये थे, उनको नज़दीक से देखने का मन हो रहा है! आगे कहीं पहाड़ की तलहटी की ओर जाती हुई सड़क या पगडंडी मिली तो उसे पकड़ कर थोड़ा नीचे तक जा कर देखूंगा।
एक कच्ची सड़क नीचे जाती हुई दिखाई दे गयी है सो मैं उसी पर चल पड़ा हूं! एक रिटायर्ड फौजी मिल गये हैं जिनसे राम – राम के बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा है! पर उनकी 60-70 प्रतिशत बातें मेरे सिर के ऊपर से निकल रही हैं। काफ़ी दूर तक उनके साथ चलते चलते मैने पूछ लिया कि अब मुझे इसी सड़क से वापिस जाना पड़ेगा या आगे से भी रास्ता मिल जायेगा ! उन्होंने एक मकान की ओर इशारा करके बताया कि उसके बगल से सड़क ऊपर जा रही है जो मुझे वापिस चंबा – मसूरी रोड पर पहुंचा देगी! मैं उनको राम – राम और धन्यवाद कह कर उधर ही चल पड़ा हूं!
उस मकान के पास पहुंचा ही था कि एक कुत्ता जोर – जोर से भौंकने लगा तो मैने देखा कि वह बंधा हुआ है या नहीं ! कुत्ते को बंधा हुआ देख कर मैं उस सड़क पर चल पड़ा हूं जो वास्तव में सड़क नहीं बल्कि खेतों के बीच में चल रही मेड़ है! पहाड़ों में खेत भी सीढ़ीनुमा होते हैं, ऐसे में मुझे नीचे वाले खेत से ऊपर वाले खेत में जाने के लिये रास्ता ढूंढना पड़ रहा है! ऐसी ही एक लगभग पांच – साढ़े पांच फीट ऊंची दीवार में चार – पांच स्लेट फंसा कर उतरने – चढ़ने का जुगाड़ कर लिया गया है पर मुझे एक हाथ में कैमरा और दूसरे हाथ में मोबाइल पकड़े हुए इन स्लेट पर पैर रख कर ऊपर चढ़ना असंभव सा लग रहा है! ऊपर वाले खेत की मेड़ पर एक ग्रामीण महिला सिर पर एक बोरी और दोनों हाथों में दूध के दो बर्तन झुलाती हुई आती दिखाई दे रही है। बड़े सहज भाव से दीवार में धंसी हुई उन स्लेटों पर पैर रखते हुए वह उतर कर उसी दिशा में चली गयी है जिधर से मैं आया हूं! मैं भौंचक्का भी हूं और शर्मिन्दा भी! खैर, हिम्मत करके कैमरा गले में लटका कर और मोबाइल जेब में रख कर दीवार का सहारा लेते हुए मैं भी उन स्लेट पर पैर टिका टिका कर ऊपर आ गया हूं! ऐसी चार दीवारें और चढ़ कर मैं सड़क पर आ पहुंचा हूं। आज मैं खुद को ट्रेकर बन गया अनुभव कर रहा हूं! 😀 नटवर लाल जी को अपनी इस उपलब्धि के बारे में नमक – मिर्च लगा कर बताऊंगा! 😉
सुबह के 7.45 हो रहे हैं ! धूप की स्थिति देख कर लग रहा था कि शायद 10 बज गये होंगे! सब्ज़ी और परचून की दुकानें खोली जा रही हैं ! रेस्टोरेंट में भी कर्मचारी कुर्सी – मेज़ें सीधी करते हुए नज़र आ रहे हैं!
अपनी हट में आ पहुंचा हूं! इतनी सर्दी में नहाने का मन नहीं है! वाश बेसिन में एक दम बर्फ़ जैसा ठण्डा पानी आ रहा है जिसमें चेहरा और हाथ धो लिया जाये तो भी गंगा स्नान का पुण्य मिल जायेगा, ऐसा मेरा पक्का विश्वास है! “मन चंगा तो वाश बेसिन में गंगा !” (बाद में जब नटवर भाई से बात हुई तो उन्होंने कहा कि नहाने के लिये गर्म पानी की बाल्टी तो मिल ही जाती ! आप लड़कों को बोल देते !)
नाश्ते में भरवां परांठे – दही और अचार है! मुझे कॉफी का बहुत शौक है सो नटवर जी ने एक कप कॉफी के लिये भी आदेश कर दिया है! हम लोग डायनिंग हॉल में हैं, जिसमें सामने रसोई वाला सेक्शन है! वहीं से परांठे बन – बन कर आ रहे हैं! एक ब्लू टूथ वाला एंप्लीफ़ायर – कम – स्पीकर भी रखा है! यदि मेहमान कुछ गीत – संगीत – नृत्य का आनन्द लेना चाहें तो कुर्सी – मेज़ एक साइड में कर दी जाती हैं और फ़िर डांस पार्टी की जा सकती है! पर हाय रे कोरोना ! पर्यटन उद्योग की तो इस कोरोना और लॉक डाउन ने बैंड बजाई हुई है! लोग घर से निकलते हुए डर रहे हैं ! स्टेट बॉर्डर पर कोई लेटेस्ट कोरोना निगेटिव रिपोर्ट तो नहीं मांगेगा, यह भी सवाल मन में रहता है! पता नहीं मनु प्रकाश त्यागी ऐसे माहौल में कैसे इस प्रतिष्ठान का खर्च उठा रहे हैं ! 2019 में कैंप बनाया, 2020 मार्च में लॉक डाउन लग गया ! 2021 की ओर टकटकी लगाये बैठे थे कि लोग अपने – अपने घरों से घूमने – फिरने के लिये निकलेंगे तो कुछ कमाई होगी पर कोरोना पुनः डराने – धमकाने आ गया है! कैंप के सामने यानि सड़क के उस पार एक रेस्टोरेंट है जिस पर TravelUFO का बोर्ड लगा हुआ है! पर नटवर लाल भार्गव ने बताया कि जब छः महीने के लिये लॉकडाउन लगा हुआ हो तो रेस्टोरेंट चालू रखने का भी क्या फ़ायदा !
पूरे कैंप में कुल मिला कर 20 हट्स हैं जिनमें 8 नंबर हट में मैने डेरा डाला हुआ है और नीचे 3 नंबर में नटवर लाल भार्गव रहते हैं! आज मैं ही अकेला मेहमान इस कैंप में मौजूद हूं! आज फ़ाग का दिन है पर हर तरफ़ शांति छाई हुई है! कहीं कोई हंगामा नहीं हो रहा! शायद दो – एक घंटे बाद, यानि 10 बजे के बाद लोग होली खेलने के लिये बाहर सड़कों पर निकलें !
तेंदुए और भालुओं का शिकार करने चल दिये अब हम !
नटवर जी को साथ लेकर पुनः ऊपर पहाड़ी की ओर जा रहा हूं जहां कल शाम भी गये थे। आज इन संकरी पगडंडियों पर इतना डर नहीं लग रहा है! ऊपर समतल मैदान पर पहुंच कर हिमालय की बर्फ़ से लदी चोटियां देखने की इच्छा आज भी अधूरी रह गयी है ! उत्तराखंड के जंगलों में कहीं – कहीं आग लगी हुई है ! इस वज़ह से वातावरण में एक अजीब सा स्मॉग / कोहरा जैसा सा छाया हुआ है! हिमालय की आउटलाइन भी नहीं नज़र आ रही है !
नटवर जी ने एक पेड़ की ओर इशारा करके बताया कि ये अखरोट का पेड़ है! हम जो अखरोट बाज़ार से खरीद कर लाते हैं, वह वास्तव में इस पेड़ के फ़ल की गुठली होती है! सूखी हुई गुठली को फ़ोड़ दो तो उसमें से अखरोट की गिरी निकलती है! पर अभी फल देने का मौसम नहीं आया है इसलिये ये पेड़ यूं ही बेमतलब खड़ा हुआ है!
हम तेंदुए, भालू और हिरन आदि देखने के लिये और अपने कैमरे से उनका शिकार करने के लिये रिज के दूसरी ओर ढलान पर उतरते जा रहे हैं! जब से नटवर जी ने संभल कर चलने के लिये और तेंदुए की आहट पर कान चौकन्ने रखने को कहा है, मेरे होश फ़ाख्ता हैं ! मैं अपने बीवी – बच्चों से वायदा करके आया हूं कि मैं सिंगिल पीस वापिस लौट आऊंगा पर अगर सामने तेंदुआ आ गया तो सिंगिल पीस बचूंगा क्या? अपने मेहमान – कम – क्लायंट के साथ ऐसा कोई करता होगा भला? 🙁 मैने नटवर जी को कह दिया है कि अगर भालू या तेंदुआ आ कर मुझे खाने का उपक्रम करने लगे तो वह इस पूरी प्रक्रिया की वीडियो तो जरूर बना लें! यूट्यूब पर डाल देंगे तो वायरल हो जायेगी ! उनको भी अपनी चैनल को सुपर हिट करने का ये आइडिया जंच गया है!
हमें ढलान पर उतरते उतरते काफ़ी देर हो चुकी है पर अभी तक कुछ चिडियाओं के अलावा कुछ भी नज़र नहीं आया है! एक जगह नटवर जी दिखा रहे हैं कि यहां पर तेंदुए और भालू पानी पीने आते हैं ! लगता है कि नटवर जी को अपनी चैनल हिट करनी ही करनी है! 😉
हर दो कदम पर हमारी राह में लाल रंग के फूल बिखरे हुए हैं ! बोले तो – रेड कार्पेट वेल्कम किया जा रहा है! ये लाल रंग के फ़ूल बुरांश के हैं जिसे अंग्रेज़ी में Rhododendron कहते हैं! जब तक ये पेड़ पर रहते हैं, उनकी शोभा में चार चांद लगाते रहते हैं! जब इनकी पंखुड़ियां नीचे सड़क पर बिखरती हैं तो red carpet welcome का दृश्य साकार करने लगती हैं ! यदि आप इन फूलों को एकत्र करके पानी में उबाल लें और चीनी मिला लें तो बुरांश का शर्बत बन जाता है! आप ये concentrate कांच की शीशियों में भर कर रख लेते हैं और dilute करके खुद भी पीते रहते हैं और अपने मेहमानों को भी पिलाते रह सकते हैं!
मैने पूछा कि हम इधर से कहां निकलेंगे तो नटवर जी बोले, “यहीं से वापिस भी आना है!” हांय? अगर वापिस ही आना है तो अभी क्यों न वापिस चले चलें? ये तो हद हो गयी शराफ़त की !
वापिस ऊपर समतल मैदान में आ कर अब हम उस कच्ची सड़क पर चल पड़े हैं जिस पर जंगल सफ़ारी वाली जीप आती – जाती हैं! घना जंगल है, चारों तरफ़ ऊंचे – ऊंचे देवदार / चीड़ के पेड़ हैं ! कभी – कभी कोई स्कूटर पर ऊपर ही ओर जाता हुआ दिख जाता है! पता नहीं, ये लोग ऊपर कहां और किस लिये जा रहे हैं!
यूं ही चलते चलते हम पुनः मसूरी मार्ग पर आ पहुंचे हैं! सामने ही पानी / कोल्ड ड्रिंक की दुकान से पानी की दो बोतलें लेकर हम इस बार सड़क मार्ग से अपने कैंप की ओर बढ़े तो होली की धमाचौकड़ी से सामना हुआ! पर खैर, हमें किसी ने कुछ नहीं कहा ! वहीं क्लब महेन्द्रा का रिज़ॉर्ट भी था, गेट में से झांका तो पता चला कि वहां काफ़ी पर्यटक आये हुए हैं और लॉन में गुलाल से होली खेली जा रही है! साउंड सिस्टम भी लगा दिया गया है और कुछ महिलाएं अपने बच्चों के साथ थिरक भी रही हैं! खैर जी, हमें क्या?
सड़क पर आगे एडवेंचर स्पोर्ट्स का जुगाड़ दिखाई दे रहा है! आपने अपने शहर के मेलों में सर्कस और मौत का कुआं तो देखा ही होगा ! मेरे जैसे इंसान के लिये तो बर्मा ब्रिज, रस्सी के बने जाल पर ऊपर चढ़ना और दूसरी ओर उतरना, फ़्लाइंग फ़ॉक्स कुछ – कुछ वैसे ही हैं खासतौर पर इसलिये कि इन सब खेलों को नीचे अंतहीन खाई और भी अधिक रोमांचक बना रही थी! उस गहरी खाई के ऊपर दो साइकिलें तार पर बांध दी गयी हैं ताकि लोग उन साइकिलों पर बैठ कर खाई को पार कर सकें! मुझे तो उनके बारे में सोच कर अपने घर में बैठे – बैठे भी सिहरन हो रही है!
जब हम दोनों अपने कैंप के निकट पहुंचे तो वहां सात – आठ बच्चे बड़े प्यार से एक दूसरे को गुलाल से रंगने में व्यस्त थे। उनका भाई अपने मोबाइल से उनकी फ़ोटो खींच रहा था। जब मैने भी अपने कैमरे से उनकी दो – एक फ़ोटो लीं तो उन बच्चों ने मेरे हाथ में असली वाला कैमरा देख कर अपने भाई के बजाय मेरी ओर मुंह कर लिया ताकि मैं उनकी अच्छे से फोटो खींच सकूं!
जलेश्वर महादेव मंदिर और जड़ीपानी
जहां ये बच्चे होली खेल रहे हैं, वहीं एक होर्डिंग लगा हुआ है – जलेश्वर महादेव मंदिर और एक संकरी, पथरीली सड़क लूप बनाती हुई ऊपर जा रही है! हांफ़ते – हांफ़ते उस सड़क से मंदिर तक पहुंचा तो पता चला कि अरे, ये तो वही मंदिर है जो हमने कल शाम सूर्यास्त के लिये ऊपर जाते समय देखा था। नटवर जी ने बताया कि यहां पहाड़ों से जो पानी नीचे आता है, वह इन पेड़ों की जड़ों से फ़िल्टर होता हुआ यहां इस कुण्ड में एकत्र होता है! इस कुण्ड से जल लेकर शिवलिंग का जलाभिषेक किया जाता है! एक – एक पेड़ को यहां एक – एक कुएं के बराबर माना जाता है! इसीलिये इस गांव का नाम जड़ीपानी है और ये जलेश्वर महादेव हैं! यहां पर महाशिवरात्रि को गांव के सब स्त्री – पुरुष और बच्चे त्योहार मनाने के लिये और शिव जी को जलाभिषेक करने के लिये एकत्र होते हैं! ओह ! तो ये है जड़ीपानी नाम रखे जाने की वज़ह ! थैंक यू नटवर जी !
सुरकंडा देवी दर्शन के लिये नटवर जी से तय किया हुआ है पर सुबह से पहाड़ी रास्तों पर पैदल चलते – चलते, मेरी कमर और पैर जवाब दे रहे लग रहे हैं! अपनी हट में पहुंचते – पहुंचते 12 बज चुके हैं! मेरी स्मार्ट वाच बता रही है कि मैं सुबह सोकर उठने के बाद से अब तक 11,000 कदम चल चुका हूं! सो मैं Volini ointment कमर पर लगा कर आधा घंटे के लिये बिस्तर पर पसर गया हूं ताकि कमर सीधी कर सकूं ! यदि कहीं और जाने की बात होती तो मैं शायद मना ही कर देता पर देवी मां के दर्शन को भला कैसे मना कर सकता हूं!
अभी के लिये इतना ही! देवी दर्शन यात्रा के लिये एक अलग पोस्ट लिखूं रहा हूं! आप इस अजब – ग़ज़ब यात्रा में मेरे हमसफ़र बने हुए हैं, इसके लिये आपका हार्दिक आभार ! जल्द ही पुनः मिलते हैं! नमस्कार!