1. घुमक्कड़ों का कुंभ – ओरछा महामिलन
2. घुमक्कड़ों का कुम्भ -पहला दिन
3. ओरछा – मगर ये है कहां?
4. ओरछा – अभयारण्य
यह तो आप जान ही चुके हैं कि घुमक्कड़ी दिल से नामक फेसबुक व व्हाट्सएप ग्रुप के द्वारा अपने सदस्यों के लिये 24-25 दिसंबर 2016 को ’ओरछा महामिलन’ का आयोजन किया गया था और यह खबर मुझ तक पहुंचते ही मैंने भी अल्टीमेटम दे दिया था कि मुझे भी साथ लेकर चलो वरना….. मैं धरना देकर बैठ जाऊंगा। पर वास्तव में धरना देने की जरूरत पड़ी ही नहीं। सारी व्यवस्था हो जाने के बावजूद eleventh hour पर भी, पूरे ग्रुप ने बड़े आदर – सम्मान और स्नेह के साथ न केवल मुझे अपने साथ जोड़ लिया बल्कि सारे रास्ते खिलाया – पिलाया, आतिथ्य सत्कार किया और अपनी पलकों पर बैठा कर (यानि ट्रेन में अपनी बर्थ पर सुला कर) झांसी तक ले गये। अमृतसर – दादर एक्सप्रेस 24 दिसंबर की सुबह 6.45 पर जब हम 14-15 घुमक्कड़ों को लेकर झांसी पहुंची तो लगभग उसी समय झारखंड से भी घुमक्कड़ प्रजाति के कुछ प्रतिनिधियों का एक और जत्था दूसरी ट्रेन से आ पहुंचा जिसमें प्रकाश यादव-नयना यादव का परिवार, हेमा सिंह व उनका परिवार, संजय सिंह, आर डी प्रजापति आदि शामिल थे। जब तक हमारे मेज़बान और कद्रदान मुकेश पाण्डेय ओरछा से झांसी स्टेशन पर हम सब को ले जाने के लिये आ पाते, हमने इस समय का सदुपयोग सारे घुमक्कड़ों के सुन्दर – सलोने – ताज़ातरीन चेहरे अपने कैमरे और दिल में बसाने में किया। दारोगा जी के आते ही भरत मिलाप हुआ, यानि झप्पियां ली – दी गईं और उपलब्ध दो वाहनों से हम लोगों को ओरछा की यात्रा पर रवाना कर दिया गया। अब आगे…
रितेश गुप्ता का परिवार, रूपेश शर्मा और मैं लगभग आधा घंटे में ओरछा जा पहुंचे। पूरे रास्ते मैं सड़क को और दोनों ओर बन गयी नई – नई अट्टालिकाओं को देख – देख कर चमत्कृत होता रहा कि 33 वर्ष के ‘छोटे से’ कालखंड में ही कितना आमूलचूल परिवर्तन हो गया है। जिस टूटी फूटी सड़क पर दूर दूर तक पेड़ पौधे और घास चरती हुई गाय-भैंस के अलावा और कुछ नज़र ही नहीं आया करता था, उस सड़क पर अब रिज़ॉर्ट और बैंकेट हॉल खड़े थे। ओरछा में भी सिर्फ एक किले की मामूली सी स्मृति शेष थी, बाकी सब समय के साथ-साथ स्मृति से लोप हो गया था। उत्सुकता बहुत थी कि कैसा और क्या क्या परिवर्तन हो चुका होगा।
ओरछा का प्रवेश द्वार – गणेश दरवाज़ा
हम ओरछा में प्रवेश कर रहे हैं – इसका पहला संकेत मिला सड़क पर खड़े विशालकाय गणेश द्वार से। प्राचीन स्थापत्य कला के प्रतिनिधि इस विशाल द्वार पर लिखी हुई पंक्तियां – प्रबिस नगर कीजै सब काजा ! हृदय राखि कोसलपुर राजा! हमारी ओरछा यात्रा की सफलता हेतु शुभ कामनाएं तो दे ही रही थीं, साथ ही हमें यह भी बता रही थीं कि इस पावन धरती का कण-कण राजा राम को ही समर्पित है।
राजा राम सरकार की जयकार करते हुए हमारी कार आगे बढ़ चली और कुछ ही क्षण में मुख्य मार्ग छोड़ कर एक गली में स्थित ओरछा रेज़ीडेंसी होटल एंड रेस्टोरेंट के आगे जा खड़ी हुई।
रिसेप्शन पर पहुंचे तो हमारे सारथी रूपेश ने कहा कि चलिये, फर्स्ट फ्लोर पर चलते हैं। ऊपर पहुंच गये तो रूपेश शर्मा ने अपनी जुराब में से (या शायद जेब में से!) एक लम्बा चौड़ा फर्रा निकाला जिसकी लगभग 20 तह की हुई थीं। किस कमरा नंबर में कौन कौन घुमक्कड़ ठहराया जायेगा, यह सब मुकेश पांडेय जी ने पहले से ही लिखा हुआ था। न जाने क्यों मुझे बुज़ुर्ग मान लिया गया था अतः एक अन्य वास्तविक बुज़ुर्ग रोमेश शर्मा जी के साथ कमरा नं. 207 हमें आबंटित हो गया। (ये बात अलग है कि इस पोस्ट को पढ़ कर रोमेश शर्मा जी ने फोन करके सूचित किया कि ’वह तो अभी सिर्फ 52 साल का ही हट्टा कट्टा नौजवान हैं , झंडू का केसरी जीवन खाते हैं और कश्मीरी कहवा रोज़ पीते हैं। उनके रग-रग में ’केसर का दम’ है!’)
मेरा कैमरा तो झांसी स्टेशन पर ही मेरे कंधे पर आ चुका था, अतः बैग मेज़ पर टिका कर मैं एक क्षण भी बरबाद किये बिना होटल से बाहर निकल कर पुनः सड़क पर आ गया क्योंकि गणेश द्वार और उससे भी पहले बायें हाथ पर एक खंडहर नुमा भवन मुझे कार में से ही दिखाई दे गये थे, अतः उनका नज़दीक से निरीक्षण-परीक्षण करने की बेचैनी हो रही थी।
जैसे हावड़ा – अमृतसर के बीच में पंजाब मेल और उसके पीछे पीछे डुप्लिकेट चलती है, ठीक वैसे ही झांसी से आओ तो पहले गणेश द्वार और फिर एक डुप्लिकेट द्वार मिलते हैं।
उन दोनों द्वारों को अपने कैमरे में सहेज कर अब उस खंडहर नुमा भवन की ओर बढ़ा तो लोग बाग अपने अपने घर – दुकान के बाहर धूप में बड़ी तल्लीनता से अखबार पढ़ते दिखाई दिये। उन सब को भी कैमरे में सहेजा और आगे बढ़ा तो जा पहुंचा तोपची की हवेली पर! यह वही प्राचीन खंडहरनुमा भवन था, जो मुझे कार से आते समय दिखाई दिया था। तोपची की हवेली का वर्णन कुछ इस प्रकार है-
भवन तो निश्चय ही कई शताब्दी पुराना था ही, परन्तु पिछले पांच – सात दशकों में पुरातत्व विभाग का कोई जिम्मेदार अधिकारी इस भवन की खैर-खबर लेने आया हो, ऐसा नहीं लगा। इस तोपची हवेली का परिचय देता एक बोर्ड टांग कर अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ ली गयी है। अगर ये किसी तोपची के बजाय किसी राजा की हवेली रही होती तो शायद इसकी इतनी दुर्दशा न होती। खैर!
वहां से लौट कर होटल की ओर बढ़ा तो हरेन्द्र धर्रा का फोन आगया – “सर जी, कहां हो? हम लोग भी बाहर ही धूप सेक रहे हैं। आ जाओ।” होटल के बाहर मेन रोड पर ही एक चाय की दुकान के बाहर खड़े हुए सचिन जांगड़ा, हरेन्द्र, रूपेश, रितेश और डॉक्टर बाबू मिल गये। मैने भी अपनी कॉफी बनवाई जो इतनी मीठी थी कि अगर मैं लगातार बोलता न रहता तो पन्द्रह मिनट में ही मेरे होठ ऐसे चिपक जाते मानों फेविक्विक लगा दी हो!
वहां से हम होटल में डायनिंग हॉल में जा पहुंचे। जिन साथियों को हम स्टेशन पर ही छोड़ आये थे, वह सब आ चुके थे और नाश्ता चल रहा था। हर कोई हर किसी से मिलने के लिये बहुत उत्सुक व उत्साहित था। एक मेज़ पर बच्चा पार्टी, एक पर महिला वर्ग और दो-तीन मेज़ जोड़ कर एक लंबी मेज़ हम पुरुषों के लिये। कमल, संजय कौशिक, रितेश, रमेश जी, बीनू कुकरेती, नरेश सहगल और रूपेश से तो ट्रेन में ही परिचय होने लगा था, पर यहां तो एक साथ और भी बहुत सारे साथी थे जिनको जानना, पहचानना और समझना था – पंकज शर्मा हरिद्वार से, हरेन्द्र धर्रा, मनोज धारसे, प्रकाश यादव, रजत शर्मा जयपुर से, सचिन जांगड़ा, सूरज मिश्रा और मुकेश पाण्डेय आदि आदि। इनमें से कुछ नाम से मैं फेसबुक की वज़ह से परिचित था, कुछ लोगों से पिछले तीन दिनों से व्हाट्स एप ग्रुप के माध्यम से परिचय हो रहा था। बैरे होते हुए भी हम एक दूसरे की प्लेट में पकौड़े / जलेबी ला ला कर रख भी रहे थे और एक दूसरे की प्लेट पर झपट्टा मार – मार कर खा भी रहे थे। ऐसे ही हंसी मज़ाक करते करते ब्रेकफास्ट संपन्न हुआ और मैं भी अपने कमरे में लौटा और फटाफट स्नान आदि से निवृत्त हो गया।
इससे पहले कि दिन में बारह बजे के करीब हमारी हेरिटेज वॉक आधिकारिक रूप से मुकेश पाण्डेय के संरक्षण में शुरु होती, मैं अपनी बेचैनी के चलते कैमरा उठा कर दस बजे ही ओरछा का मौका-मुआयना करने के मूड से सड़क पर निकल आया। थोड़ा सा आगे चलते ही छोटी सी सब्ज़ी मंडी दिखाई दी जिसके पास ही एक लोहे के गेट के उस पार, एक पार्क दिखाई दिया तो उसके अन्दर जा पहुंचा। पता चला कि ये फूलबाग है। बुंदेला राजाओं की इस आरामगाह का, चंदन कटोरे का, हरदौल का, सावन-भादों की मीनारों का बहुत सुन्दर ऐतिहासिक विवरण मुकेश पाण्डेय ने अपने ब्लॉग में बहुत विस्तार से दिया है। मैने भी जो कुछ इस स्थान के बारे में जाना है, वह सब मुकेश पाण्डेय जी के मुख से ही सुन कर जाना है। अतः आपको यदि उस इतिहास को, उन किंवदंतियों को जानने की इच्छा है तो मैं मुकेश पाण्डेय के ब्लॉग का लिंक यहां पर दिये दे रहा हूं। यहां मैं सिर्फ कुछ चित्र लगा रहा हूं जो मैने उस दौरान लिये।
आपसी प्रेम का आलम ये था कि कौन बच्चा किसका है, यह पता लगाना मेरे लिये अत्यन्त कठिन हो रहा था। सबसे छोटी साक्षी तो हर किसी के साथ ऐसी घुली-मिली कि पता लगाना असंभव हो गया कि इसकी असली मम्मी और भाई – बहिन कौन से हैं। बहुत सारे भाई-भाभी और बहुत सारे बच्चे वाला संयुक्त परिवार लग रहा था – घुमक्कड़ी दिल से’ जिसमें ये जानना कतई आवश्यक नहीं था कि कौन सा बच्चा किस भाई-भाभी का है! जीवन में पहली बार मुलाकात हुई और दो-तीन घंटे में ही बच्चे इस प्रकार घुल मिल जायें – यह आश्चर्यजनक था।
अपनी इस एकाकी यात्रा से लौट कर होटल आया तो देखा कि हमारे एक परमप्रिय घुमक्कड़ ब्लॉगर साथी मुकेश भालसे, उनकी ब्लॉगर भार्या कविता भालसे और फ्यूचर ब्लॉगर सुपुत्र शिवम् भी आ चुके थे और भूतल पर ही, अपने वॉल टु वॉल कारपेट वाले कमरे में हैरिटेज वॉक हेतु सुसज्जित हो रहे थे। अपनी इन्दौर यात्रा के दौरान मैं उनसे मिलने उनके सेजवाया स्थित घर पर गया था, और अगले दिन हम लोग माउंट आबू यात्रा पर भी गये थे। मेरे लिये इस पूरे ग्रुप में सही मायने में पूर्व परिचित घुमक्कड़ परिवार भालसे परिवार ही था। जब उनसे सामना हुआ तो तगड़ी वाली जादू की झप्पी ली-दी गयी। शिवम् को उन्होंने पहले से ही ट्रेनिंग दी हुई है, अतः वह भी चरण-स्पर्श करने हेतु तेजी से लपका।
तब तक अन्य महिलाएं भी सोलह श्रंगार करके, अपने बच्चों व मियांओं सहित होटल के द्वार पर आ चुकी थीं। इस बार आधिकारिक रूप से हम फूलबाग, हरदौल की समाधि, पालकी भवन, सावन – भादों आदि देखते हुए राजा राम मंदिर पर जा पहुंचे।
पंकज, बीनू, नरेश सहगल, प्रकाश यादव, रितेश, धरेन्द्र, नटवर के कैमरे लगातार क्लिक करते चल रहे थे। एक आदर्श गाइड की भूमिका में मुकेश पाण्डेय जी को चंद्न कटोरे, सावन – भादों मीनार-द्वय, पालकी महल, हरदौल बैठक व समाधि, राजा राम मंदिर का विस्तृत वर्णन करते देख कर कुछ अन्य पर्यटक भी उनके पीछे – पीछे लग लिये थे और प्रोफेशनल गाइड अपना माथा पीट रहे थे।
’घुमक्कड़ी दिल से’ ग्रुप सावन – भादों मीनारों के आगे !
जैसा कि मुकेश पांडेय जी का ब्लॉग बताता है –
“महाराजा वीर सिंह के आठ पुत्र थे, जिनमें सबसे बड़े का नाम जुझार सिंह व सबसे छोटे हरदौल थे। जुझार को आगरा दरबार और हरदौल को ओरछा से राज्य संचालन का जिम्मा विरासत में मिला हुआ था। लोग जुझार सिंह को कान का कच्चा व हरदौल को ब्रह्मचारी एवं धार्मिक प्रवृत्ति का मानते हैं। , “सन 1688 में एक खंगार सेनापति पहाड़ सिंह, प्रतीत राय व महिला हीरादेवी के भड़कावे में आकर राजा जुझार सिंह ने अपनी पत्नी चंपावती से छोटे भाई हरदौल को ‘विष’ पिला कर पतिव्रता होने की परीक्षा ली, विषपान से महज 23 साल की उम्र में हरदौल की मौत हो गई। हरदौल के शव को बस्ती से अलग बीहड़ में दफनाया गया। जुझार की बहन कुंजावती, जो दतिया के राजा रणजीत सिंह को ब्याही थी, अपनी बेटी के ब्याह में भाई जुझार से जब भात मांगने गई तो उसने यह कह कर दुत्कार दिया क्योंकि वह हरदौल से ज्यादा स्नेह करती थी, श्मशान में जाकर उसी से भात मांगे। बस, क्या था कुंजावती रोती-बिलखती हरदौल की समाधि (चबूतरा) पहुंची और मर्यादा की दुहाई देकर भात मांगा तो समाधि से आवज आई कि वह (हरदौल) भात लेकर आएगा। इस बुजुर्ग के अनुसार, “भांजी की शादी में राजा हरदौल की रूह भात लेकर गई, मगर भानेज दामाद (दूल्हे) की जिद पर मृतक राजा हरदौल को सदेह प्रकट होना पड़ा। बस, इस चमत्कार से उनकी समाधि में भव्य मन्दिर का निर्माण कराया गया और लोग राजा हरदौल को ‘देव’ रूप में पूजने लगे।” कुंजावती की बेटी की शादी में हुए चमत्कार के बाद आस-पास के हर गांव में ग्रामीणों ने प्रतीक के तौर पर एक-एक ‘हरदौल चबूतरा’ का निर्माण कराया, जो कई गांवों में अब भी मौजूद हैं। शादी-विवाह हो या यज्ञ-अनुश्ठानों का भंड़ारा, लोग सबसे पहले चबूतरों में जाकर राजा हरदौल को आमंत्रित करते हैं, उन्हें निमंत्रण देने से भंड़ारे में कोई कमी नहीं आती।”
जैसा कि संभवतः आपको ज्ञात हो, ओरछा नगरी का इतिहास झांसी से भी पुराना है। एक जमाना था जब झांसी का महत्व सिर्फ उसके किले के कारण ही था, नगर तो ओरछा ही था। सन् 1980 से 1983 तक जब मैं झांसी में रहता था तो कई लोगों के मुंह से सुना था कि ओरछा के जहांगीर महल व चतुर्भुज मंदिर से झांसी का किला एक झाईं सा दिखता था । झांई सा धीरे धीरे झांसी में परिवर्तित हो गया! ओरछा में घूमते हुए सड़क किनारे ऐसे कुछ खंडहर मुझे दिखाई दिये जिनसे इस नगरी की प्राचीनता का, इसकी भवन निर्माण की कलात्मक शैली का अन्दाज़ किया जा सकता है।
राजा राम मंदिर तक पहुंचते पहुंचते कपाट बन्द होने का समय हो चुका था, और अब राजा राम सरकार के दर्शन शाम को आठ बजे ही हो सकते थे, अतः हम बाहर से ही फोटो लेते रहे।
इस मंदिर की देखभाल बहुत उच्च-स्तरीय है और लग रहा था कि इस भवन पर पेंट भी अभी दो-एक मास पहले ही हुआ होगा क्योंकि कहीं किसी दीवार या गुंबद पर धूल का एक भी कण दिखाई नहीं दिया। जैसा कि वहां पता चला, राम राजा मंदिर का प्रबन्ध राम राजा ट्रस्ट के हाथों में है और चतुर्भुज मंदिर का प्रबन्ध पुरातत्व विभाग के हाथों में है, अतः दोनों मंदिरों के प्रबन्ध में जो धरती – आकाश के जैसा अन्तर है, उसका कारण स्पष्ट हो गया।
चतुर्भुज मंदिर का विवरण एक स्वतंत्र पोस्ट के रूप में देना समीचीन लग रहा है। अतः इस प्राचीन मंदिर का विवरण यहां शीघ्र ही उपलब्ध कराया जायेगा। तनिक सब्र करें ! अगली पोस्ट में हम चलेगा ओरछा अभयारण्य की ओर जो मां बेतवा के तट पर स्थित है। उसके बाद राजा राम मंदिर !
क्रमशः
बहुत ही शानदार और जानदार वर्णन पढ़कर मजा आ गया।वापिस ओरछा पहुँचा दिया सर,।क्या कहने बहुत खूब।
प्रिय रूपेश जी, आप ऐसे ही आते रहें, उत्साह बढ़ाते रहें, हम भी यूं ही लिखते चले जायेंगे!
आदरणीय मुझसे पहले से ही आप ओरछा से परिचित रहे है । आपका साथ मिलना ही मेरे लिए सौभाग्य था ।
प्रियवर मुकेश जी,
कहते हैं कि हर घटनाक्रम ऊपर वाले की पूर्वनिर्धारित समय-सारिणी के अनुसार घटित होता है। दुनिया में अरबों – खरबों लोग हैं, फिर हम कुछ गिने चुने और पहले से अपरिचित लोग कैसे कर एक स्थान पर दो दिन के लिये एकत्र हुए, आपस में स्नेह भाव बढ़ाया और आगे भी नियमित अन्तराल पर मिलते रहने का प्रण लेकर वापिस अपने अपने घर लौट गये? अब यह क्रम यूं ही बना रहे, यही राजा राम सरकार से हम सबकी याचना है।
बहुत अच्छे सर जी सुपर्ब?
प्रिय विनोद, आते रहो, पढ़ते रहो और अपना लिखा हुआ भी पढ़ाते रहो !
बहुत ही खुबसूरत
आपका हार्दिक आभार अनिल शर्मा जी !
बहुत ही उम्दा पोस्ट है ओरछा के प्रथम दिवस की ।
पल पल का हिसाब रखते है आप सर ,आपके पास जो गैजेट है उसका असली उपयोग पोस्ट पढ़कर समझ आता है ।
पढ़कर मजा आ गया ।
प्रिय किशन बाहेती,
सच तो ये है कि आप सब ने मुझ पर जो स्नेहवर्षा की है, उससे मैं अभी तक भीग रहा हूं! इतनी सर्दी के दिनों में जबकि हर तरफ से स्नोफॉल की खबरें आ रही हों, कोई भी बारिश में भीगना नहीं चाहेगा, पर ये बारिश तो मुझे ऐसी गर्माहट दे रही है कि बस, क्या बताऊं! आपका आभार कि आप इस ब्लॉग तक आये और इसे पसन्द किया। कृपया स्नेह बनाये रखें।
बढ़िया…. शानदार…रोचक प्रस्तुति….खास सुशांत सिंघल शैली में….ग्रुप मिलन को पुनर्जीवित कर दिया आपने सब लम्हे सजीव हो गए.और हाँ चित्रावली का तो कोई जवाब ही नही..ओरछा का ये पहलू सभी के कैमरे से अछूता था..?
प्रिय डा. प्रदीप त्यागी जी, हार्दिक आभार। ये तो सही कहा आपने। मैं जहां भी जाता हूं, वहां के जन-जीवन को अपने कैमरे से पकड़ने और फिर समझने का प्रयास करता हूं। मेरे लिये घुमक्कड़ी यही है।
सर बहुत ही बेहतरीन पोस्ट ।
धन्यवाद हरेन्द्र! मुझे भी ओरछा तुम्हारी आंखों से देखने की इच्छा है।
सर ..बेहद शानदार और रोचक तरीके से लिखा है .जो जगह हम न देख पाए वो भी आपने हमें दिखा दी . आपसे ये दूसरी मुलाकात भी यादगार बन गयी .
प्रिय नरेश जी, मैं स्वयं आपकी घुमक्कड़ी और लेखन का मुरीद हूं अतः आपका ये कमेंट मेरे लिये बहुत मायने रखता है। भविष्य में हम और भी अनेकों यात्राएं साथ – साथ कर सकें, यह मेरी स्वाभाविक इच्छा है। राजा राम सरकार मेरी ये इच्छा पूरी करें।
सचमुच सुशांत जी मजा आ गया पढ़कर, सारी यात्रा को एक बार फिर से महसूस कर रहे हैं और वो सब भी जो वहां रहते हुए भी कुछ व्यवस्थाओं के कारण नहीं महसूस कर पाये थे.
आपने ग्रुप को जो एक “संयुक्त परिवार” की उपमा दी वो सचमुच मरे लिए और शायद हर एक मेम्बर के लिए किसी गोल्ड मैडल से कम नहीं है. आज के युग में जब “असली” संयुक्त परिवार बिखर रहें हों वो उस समय में एक “आभासी” लोगों का “नकली संयुक्त परिवार ” सचमुच एक उदाहरण है उन “असली संयुक्त परिवारों के लिए. आपके फोटुवों की क्या तारीफ़ करूँ, सचमुच आपने उनके माध्यम से वो दिखा दिया जो हम देखते तो भी नहीं देख पाते.
आशा है आगे भी इसी प्रकार ग्रुप पर अपना आशिर्वाद बनायें रखेंगे और मार्गदर्शन करते रहेंगे…
जय सिया राम
अपनी इन मधुर भावनाओं को अभिव्यक्ति देने के लिये आपका हार्दिक आभार संजय कौशिक जी !
सुशांत सर जी… जय श्री राधे |
हमेशा की तरह शानदार वर्णन और चित्रों का क्या कहना ….बहुत शानदार और सधे हुए …ओरछा मिलन की याद को बखूबी दिलाते हुए…. | आपकी लेखनी तो गजब है ही आपके फोटो भी… |
आपके साथ मिला इस यात्रा में हम लोगो को बहुत अच्छा लगा ..महसूस किया की कोई हमारा ही परिवार का बड़ा सदस्य हमारे साथ है…
ओरछा मिलन आप सभी लोगो के कारण से सफल हुआ आगे भी इसी तरह के आयोजन आप लोगो के सानिध्य में सफल भी होगे….धन्यवाद ♥ से
जय राजा राम की …
रितेश भाई, मेरे सामने आप जैसे अच्छे अच्छे मॉडल हों तो मेरे कैमरे की खुशी का ठिकाना नहीं रहता! लिखने के मामले में भी यही बात है! जब पता हो कि बड़े – बड़े ब्लॉगर पोस्ट की इंतज़ार कर रहे हैं तो थोड़ा मेहनत तो बनती ही है! 🙂
बढ़िया लिखा सर। सही मायनों में पहले आने और सामने बैठे होने का उपयोग आपने किया। जो भी जगह आपने दिखाया हमारे लिए अनछुआ रहा।
विडीओ जो आपने पोस्ट की है, इस पोस्ट में वह मेरे लिए आकर्षण है। अगले पोस्ट की प्रतीक्षा रहेगी क्योंकि उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ आपका देखा ओरछा होगा।
ओरछा और ओरछा वासियों की जिंदगी को भरपूर कवरेज दिया है आपने अपनी पोस्ट में ! मुझे जो सबसे प्रिय विषय लगा वो तोपची का किस्सा और उसकी हवेली है ! तीन मंजिल की ये संरचना बहुत आकर्षित करती है , संभव है पांडेय जी ने या किसी और ने भी इसके विषय में लिखा हो लेकिन मैं अब तक इस नायब हीरे से अनभिज्ञ था ! बहुत बेहतरीन यात्रा वृतांत से मुख़ातिब हुआ हूँ , सौभाग्य है मेरा !!
प्रिय योगेन्द्र सारस्वत,
ओरछा से मेरा लगाव बहुत पुराना है और यही कारण रहा कि ओरछा मिलन का समाचार मिलते ही मैं बेचैन हो गया और वहां जाने के लिये जिद कर बैठा। यदि ग्रुप के लिये मुझे शामिल करना किसी वज़ह से व्यावहारिक न हो पाता तो भी मैं वहां पहुंचता अवश्य और अकेला ही घूमता फिरता रहता! आपको यात्रा वृत्तान्त अच्छा लगा तो यह मेरे लिए निश्चित ही प्रसन्नता का विषय है। कृपया आते रहें, स्नेह बनाये रखें।
जब घुमक्कड़ी.कॉम पर पहली बार पढ़ रहा था तो भालसे जी और आप के कई यात्रा लेख पढ़े…
फिर अभी जब ओरछा महामिलन मे आप के आने की भी सुचना मिली,तो बहुत उत्साह था आपसे मिलने का…
चाय की गुमटी पर आप से प्रथम साक्षात्कार हुवा,फोटोग्राफी को लेकर आपके जुनून का कायल हु,आप के लिखे वृतांतो मे भी एक अलग ही स्वाद है।
उम्मीद है आप अपने फोटोग्राफ़ी के अनुभवों और यात्रा वृतान्त का लेखन अनवरत जारी रखेंगे।
प्रिय सुमित शर्मा,
घुमक्कड़ डॉट कॉम ने ही मुझे यात्रा वृत्तान्त लिखने की आदत डाली है! यही नहीं, मुकेश भालसे, रितेश गुप्ता, नरेश सहगल, मनु त्यागी, संजय कौशिक जैसे बहुत सारे दोस्त भी मुझे वहीं से मिले हैं अतः ghumakkar.com का तो मैं हमेशा ही ऋणी रहूंगा। ओरछा में आपसे मुलाकात हुई, आपने कहा कि मैं लिखता नहीं हूं पर जब आपका लिखा हुआ संस्मरण पढ़ा तो बहुत अच्छा लगा। आप नियमित रूप से लिखें तो बहुत अच्छा लगेगा।
नमस्कार सर आप भी हिंदी में लिखते है आज ही पता चला। चलो अच्छा है अब आपके हर फोटो के पीछे का नज़रिया स्पष्ट पता चल पाएगा। अच्छी सुरूवात पढ़ कर और फोटो देखकर अच्छा लगा।
प्रिय सचिन, आप इस ब्लॉग तक आये, इसे पसन्द किया और अपने कमेंट भी यहां छोड़ा, इसके लिये आपका हार्दिक आभार। यूं तो हिन्दी व अंग्रेज़ी – दोनों ही भाषाओं में लिखता हूं पर ज्यादा मज़ा अपनी मातृभाषा में ही लिखने में आता है। फोटोग्राफी जैसे टैक्निकल विषय पर अंग्रेज़ी में लिखा क्योंकि वहां अंग्रेज़ी पारिभाषिक शब्दों का हिन्दी समानार्थी ढूंढते ढूंढते पसीना आ जाता। आखिर मैं कैमरे, फिल्म, एपरचर, शटर, लेंस, सेंसर, depth of field जैसे शब्दों की हिन्दी कहां से लाता!
आपका थन्यवाद की आप यह सफर हम सबके साथ साँझा कर रहे हैं। अगले बार आप मुझे भी शामिल समझीये।
आपका लिखा पढ़ कर ऐसा लगा की मैं भी साथ था।
प्रिय वाधवा जी, सादर नमस्कार! आपका हार्दिक आभार कि आप यहां तक आये, पोस्ट पढ़ी और इतना प्यारा सा कमेंट छोड़ा ! मैं आपको अवश्य ही इस ग्रुप से परिचय कराऊंगा ताकि अगले कार्यक्रम में आपकी उपस्थिति का लाभ हम सबको मिल सके। इतना जरूर है कि ग्रुप के बाकी सदस्य जितनी घुमक्कड़ी करते हैं, मैं उसका दशमांश भी नहीं करता हूं। अपना काम-धाम, नौकरी छोड़ कर हर हफ्ते घूमता रहूं, ये मेरे लिये व्यावहारिक नहीं है। जब संभव होता है, चल पड़ता हूं वरना तो बाकी घुमक्कड़ों को यात्रा के लिये शुभकामनाएं देकर बैठ जाता हूं। 🙂
फिर से लगा की आपके साथ ओरछा में घूम रहा हूँ क्या शानदार लिखते हैं आप जब पढ़ रहा था तो ऐसा ही लगा जैसे मैं घूम रहा हूँ .. आपके साथ बिताये कुछ पल मेरे लिए सदेव यादगार रहेंगे.. अपने अनुभव और इस जिवंत यात्रा वर्णन को साझा करने के लिए आपका धन्यवाद् . ओरछा के बारे में कुछ नया जानने को भी मिला एक दिन ज्यादा रूककर भी लगा जैसे बहुत कुछ रह गया देखने को .. वोह फिर कभी मौका मिला तो पूरा करूँगा और निर्मल पवित्र बेतवा के किनारे एक शाम बिताने की इच्छा फिर से हैं ..
प्रिय नटवर लाल जी, आपका बहुत बहुत आभार इन स्नेह-परिपूर्ण शब्दों के लिये। सच तो यही है कि ओरछा का दर्शन अभी भी अधूरा ही है। जब तक तीन-चार दिन के लिये पुनः नहीं जाऊंगा, तब तक यह यात्रा अधूरी ही रहेगी। आपका पुनः आभार।
नमस्कार सर ,
आपके इस लिखे को तो पढ़कर बस यूं लग रहा है मानो टाइम मशीन चल पड़ी हो और वापिस मुझे उन्ही पलों में ले आयी हो .. आपके फोटो इतने जीवंत है कि सच में लग रहा कि मैंने तो कुछ देखा ही नहीं .. अगली बार फिर से रामराजा का आशीर्वाद लेने की तमन्ना और भी बढ़ा दी आपने ..धन्यवाद
प्रिय पंकज शर्मा, ओरछा के मिलन के दौरान आपके द्वारा लिये गये चित्र बहुत ही सुन्दर आये हैं और मुझे आपकी फोटोग्राफी बहुत ही अधिक पसन्द आई है।
अगर आप यहां एक पोस्ट (Photo Essay) ओरछा के चित्रों की लगाना चाहें तो आपका स्वागत है। मुझे बहुत अच्छा लगेगा। मैने एक Guest Column भी बनाया हुआ है।
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