दक्षिण दिल्ली में येलो लाइन मैट्रो पर हौजखास स्टेशन के निकट हौजखास गांव नाम से एक लोकप्रिय पर्यटन स्थल है जो अलग – अलग लोगों के लिये अलग – अलग कारणों से आकर्षण का केन्द्र है।
कुछ लोगों के लिये वह सैंकड़ों डिज़ायनर बुटिक का केन्द्र है जहां शादी – विवाह जैसे महत्वपूर्ण अवसरों के लिये बेहतरीन वस्त्र खरीदे जा सकते हैं। कुछ लोग हौजखास के महंगे – महंगे रेस्तरां और कैफे में चाय – कॉफी की चुस्कियों और सिगरेट के धुएं के बीच में देश – विदेश की राजनीतिक हलचलों का विश्लेषण करते मिल जायेंगे। बहुत सारे लोग साप्ताहिक अवकाश वाले दिन अपने परिवार के साथ पिकनिक मनाने के लिये हौजखास के डीयर पार्क और लेक की ओर रुख करते हैं तो कुछ रोमांटिक युवा खिलजी और तुगलक के 12वीं और 13वीं सदी के मकबरों, मंडपों और हरे भरे लॉन में अपने लिये एकान्त तलाशते मिल जायेंगे। मध्यकालीन इतिहास और प्राचीन स्थापत्य में रुचि रखने वालों के लिये भी भारतीय पुरातत्व विभाग (ASI) द्वारा संरक्षित ये खंडहर अध्ययन के लिये भरपूर सामग्री उपलब्ध कराते हैं। आज मैं भी अपने एक घुमक्कड़ साथी यशवंत राठौर को साथ लेकर हौजखास को जांचने – परखने के लिये निकल पड़ा हूं।
महर्षि अरोविन्दो मार्ग से हौजखास ग्राम के लिये हम जैसे ही मुड़े तो यशवंत ने सड़क किनारे दिखाई दे रही तीन गुमटियों की ओर इशारा करते हुए कहा कि पहले इन्हीं को देख लेते हैं। काम – धंधे के सिलसिले में कई बार इस सड़क से निकलना होता है पर कभी रुक कर इन गुमटियों को देखने की फुरसत नहीं होती। आज घूमने के लिये ही निकले हैं तो ये भी सही!
छोटी गुमटी और संकरी गुमटी नाम से दो भवन दायें हाथ पर और बाराखंभा नाम का भवन हमारे बायें हाथ पर था। ये तीनों ही लोहे की रेलिंग से घिरे हुए लॉन के मध्य में स्थित गुमटियां हैं जिनमें सबसे अधिक कुतूहल बाराखंभा को देख कर ही होता है। पुरातत्व विभाग इन तीनों परिसर की देखभाल करता है पर इनको बहुत महत्व दिया जाता हो, ऐसा प्रतीत नहीं हुआ।
छोटी गुमटी
अपनी कार को सड़क के किनारे लगा कर हम सबसे पहले छोटी गुमटी नामक भवन को देखने के लिये गेट से प्रविष्ट हुए। यह एक गुम्बद युक्त भवन है जिसे छोटी गुमटी कहा जाता है। यह पत्थरों और गारे से निर्मित एक कम बजट में खड़ा किया गया कमरा है जिसकी सामने वाली दीवार में लोहे का दरवाज़ा है जो संभवतः पिछले दस – बीस सालों से खोला ही नहीं गया होगा। दरवाज़े की ग्रिल में से भीतर झांक कर देखा तो दीवार के सहारे पी.वी.सी. का एक चार इंच व्यास का पाइप भी न जाने कब से खड़ा हुआ दिखाई दिया। संभवतः यह किसी सुल्तान के किसी गुमनाम अधीनस्थ की कब्र रही हो जो इस गुमटी के बगल में खुले मैदान में है। पार्क में एक पेड़ है जिस पर न जाने कहां से अमरबेल आ पड़ी है जो इस पेड़ को सुखा कर ही दम लेगी। यशवंत का कहना है कि किसी पेड़ को खत्म करना हो तो उस पर अमर बेल डाल दो! यह परजीवी बेल होती है जिसकी अपनी जड़ें नहीं होतीं। जिस पेड़ पर पड़ी हो, उसको ही चूसती रहती है।
इस लॉन में कुछ चिड़िया हैं, उनके लिये पानी का बरतन रखा है और और दाने भी बिखेरे हुए हैं। हमें देख कर चिड़िया कतई भयभीत नहीं हैं। और कुछ आकर्षण यहां महसूस नहीं हुआ तो हम बाहर निकल कर संकरी गुमटी के गेट से प्रविष्ट हो गये हैं।
संकरी गुमटी
ये गुमटी भी लगभग छोटी गुमटी के आकार की ही है और लॉन का आकार भी उतना ही प्रतीत होरहा था। फ़र्क है तो बस इतना कि इस गुमटी की ऊंचाई कुछ अधिक है जिसकी वज़ह से ये संकरी प्रतीत होती है। छोटी गुमटी और संकरी गुमटी समकालीन ही प्रतीत होती हैं। दो-चार फोटो यहां पर भी खींच कर हम बाहर निकल आये हैं और सड़क पार कर बाराखंभा की ओर बढ़ चले हैं।
बाराखंभा
ये गुमटी हौजखास ग्राम की ओर जा रही सड़क पर बायें हाथ पर है और सड़क के धरातल से लगभग 5-6 फुट ऊंचे टीले पर खड़ी हुई है। बारह खंभों पर टिके हुए गुम्बद के कारण इसे बाराखंभा नाम दिया गया है। यहां एक छोटा सा कुआं जैसा गढ्ढा भी दिख रहा है जिसमें पानी नहीं है। और कुछ कब्रें भी हैं। पर ये किनकी कब्र हैं, ये कहीं भी लिखा हुआ नहीं है। लॉन अच्छा लग रहा है, कुछ घने, छायादार पेड़ भी हैं जो इस परिसर को आकर्षक स्वरूप दे रहे हैं। शायद रात्रि में इस गुम्बद को कृत्रिम प्रकाश से प्रकाशित किया जाता है। किसी दिन रात को आकर देखेंगे। फिलहाल हौजखास की ओर चलें। थोड़ा आगे बढ़े तो बायें हाथ पर एक विशाल दुग्ध – धवल जगन्नाथ मंदिर दिखाई दिया तो वापसी में यहां भी रुकेंगे, यह खुद से वायदा करते हुए हम आगे बढ़ लिये हैं।
डीयर पार्क और लेक
बायें हाथ पर एक विशाल मैदान में पार्किंग स्थल देख कर कार खड़ी कर दी है पर कोई भी व्यक्ति टोकन वगैरा देने नहीं आया है। सामने एक तीन मंजिला भवन की वाह्य दीवार पर बड़ी खूबसूरत पेंटिंग की गयी दिखाई दे रही है। उसकी फोटो खींच कर बाहर आये तो सड़क के दायीं ओर डीयर पार्क और लेक की ओर जाने के लिये एक गेट मिला। चलिये पहले इसे ही देख लिया जाये।
हरियाली से भरपूर इस डीयर पार्क में थोड़ा सा आगे बढ़े तो लेक की ओर इंगित करता हुआ एक संकेतक मिला तो हम उधर ही मुड़ गये। एक रैंप से नीचे उतरे तो देखा कि दिल्ली नगर निगम ने वहां एक ओपन जिम बना कर कुछ एक्सरसाइज़ मशीनें भी लगाई हुई हैं। दिन के बारह बज चुके थे अतः कोई इंसान तो जिम का उपयोग करता हुआ नहीं मिला, हां कुछ बन्दर अवश्य विभिन्न मशीनों को ट्राई करके देख रहे थे! सामने ही रेलिंग के उस पार हौजखास यानि एक झील मौजूद थी।
जिसे आजकल लेक कहा जा रहा है, मध्यकालीन भारत में उसे हौज कहते थे और चूंकि वह खास आदमियों द्वारा बनवाया गया था, इसलिये वह हौज भी खास था। बस, यही वज़ह है कि इस पूरे क्षेत्र को हौजखास नाम मिल गया। इतिहासकारों की मानें तो अलाउद्दीन खिलजी ने सीरी फ़ोर्ट के निवासियों के लिये जल आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिये इस झील का निर्माण करवाया था। प्रारंभ में इस झील का आकार वर्तमान से कहीं अधिक था। पर अतिक्रमण व व्यावसायिक निर्माणों के चलते ये झील अब छोटी हो गयी है। बहुत लंबे समय तक दिल्ली विकास प्राधिकरण ने इस झील को झील न मान कर हौजखास इलाके के भवनों के सीवेज व ड्रेनेज खोल रखे थे और इस कारण यहां दुर्गन्ध का साम्राज्य रहता था। फिर कुछ नागरिक समितियों के दबाव में इस झील के जीर्णोद्धार का प्रयास किया गया, सीवेज और ड्रेनेज बन्द किये गये। आज यह झील दुर्गन्ध से पूर्णतः मुक्त अनुभव होरही है। हां, इतना अवश्य है कि इसमें मौजूद पानी बिल्कुल हरे रंग का है जो झील में काई जमी हुई होने के कारण है।
पर्यटकों के लिये झील की परिधि के साथ – साथ सड़क घूमती है। सड़क के एक ओर रेलिंग और झील है तो दूसरी ओर हरे – भरे लॉन और पेड़ हैं। बावजूद इसके कि डीयर पार्क और लेक के नाम पर कोई प्रवेश शुल्क नहीं लिया जा रहा है, इसका रखरखाव संतोषजनक है।
इतिहासकारों का ये भी कहना है कि हौजखास झील के बगल में जो तीन मंजिला दीवार, कमरे, मंडप और गुम्बद हैं वह सब फिरोज़शाह तुगलक ( सन् 1351-1388) ने बनवाये थे। उनके अनुसार ये सब निर्माण मस्जिद, मकबरे और मंडप हैं। सबसे ऊपर की मंजिल पर खड़े होकर पश्चिम दिशा में झील और उसके पीछे सूर्यास्त के मनभावन दृश्य दिखाई देते हैं। हम लोग तो वहां सूर्यास्त के समय तक नहीं रुक पाये पर लोगों का कहना है कि दिल्ली में सबसे खूबसूरत सूर्यास्त यहीं से देखने को मिलता है।
लेक के किनारे घूमते हुए हमें कुछ सीढ़ियां ऊपर मदरसे / मस्जिद के लिये बनी हुई दिखाई दीं परन्तु पुरातत्व विभाग द्वारा उनको बन्द कराया गया है ताकि आने – जाने के लिये केवल एक ही मार्ग रहे और उस पर नियंत्रण रखा जा सके। इस द्वार तक जाने के लिये हमें डीयर पार्क से बाहर निकल कर सड़क पर आना पड़ा। ये सड़क चौड़ी भले ही न हो पर इसके दोनों ओर आर्ट गैलरी, रेस्तरां, बुटीक, कैफ़े आदि मौजूद हैं। 300-400 कदम आगे बढ़े तो हमें हौजखास परिसर का प्रवेश द्वार मिल गया जिसमें प्रवेश के लिये बार कोड स्कैन करके टिकट खरीदना होता है। मैने गेट पर मौजूद कर्मचारियों को पुरातत्व विभाग द्वारा जारी किया गया परिचय पत्र दिखाया पर वह बोले कि इस परिचय पत्र में आपको ASI protected monuments में जाकर सभी स्थानों के चित्र खींचने की अनुमति दी गयी है पर प्रवेश शुल्क नहीं देना पड़ेगा, ऐसा नहीं लिखा हुआ है। बात तर्कहीन थी, पर 60 रुपये के दो टिकटों के लिये कौन बहस करता? अतः हमने 30-30 रुपये के दो टिकट ऑनलाइन खरीद लिये और परिसर में प्रवेश कर गये।
परिसर में प्रवेश करते ही सुव्यवस्थित और हरा भरा लॉन आकर्षित करता है। आस पास चार मंडप भी दिखाई देते हैं। जब मैं पहुंचा तो वहां पर एक कॉमर्शियल फोटोग्राफर अपनी टीम लेकर कुछ युवतियों का फोटो शूट करने की तैयारी कर रहे थे। मंडप बनाते समय इनका क्या उपयोग रहा होगा, यह तो बनाने वाला ही जाने, पर आजकल इनका उपयोग मॉडल के लिये एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के रूप में हो रहा लगता है। आम तौर पर ये अनुमान लगाया जाता है कि ये किसी के सिपहसालार के मरने के बाद उसकी स्मृति में बनाये गये होंगे। अगर ऐसा है तो भी उस सिपहसालार का न तो नाम कहीं लिखा मिलता है और न ही वहां कोई कब्र है।
इन मंडपों के निर्माण में एक विचित्र बात दिखाई देती है। मंडपों का फर्श और गुम्बद जल्दबाजी में और बड़े ऊबड़ – खाबड़ ढंग से निर्मित हैं जिनमें कहीं कोई सौन्दर्य दिखाई नहीं देता। जबकि जिन खंभों पर गुम्बद को टिकाया गया है, वह बड़े कलात्मक हैं। प्रत्येक स्तम्भ monolithic structure है अर्थात् पत्थरों और गारे की चिनाई करके नहीं, अपितु एक ही पत्थर को काट कर खड़ा किया गया है। इन स्तंभों को बनाने वाले कारीगर और उनकी कार्यकुशलता का स्तर बिल्कुल अलग है और पत्थर के टुकड़ों व गारे से चिनाई करने वाले राज मजदूरों की शैली व स्तर बिल्कुल अलग । ऐसे स्तंभ जल्दबाज़ी में नहीं, बल्कि धैर्यपूर्वक बनाये जाते हैं और उनकी कटिंग में सौन्दर्य का विशेष ध्यान रखा जाता है।
इस परिसर में मौजूद मुख्य निर्माण अंग्रेज़ी के L के आकार में है। जिसको मदरसे की उत्तरी विंग के रूप में इस नक्शे में दिखाया गया है, उसके प्रथम तल पर एक पंक्ति में कई सारे शौचालय के आकार के छोटे – छोटे कमरे बने हुए हैं। इन कमरों में न कोई खिड़की है और न ही कोई आलमारी है। इन कमरों को मदरसे का छात्रावास बताना फिरोज़शाह तुग़लक का और इस तथाकथित मदरसे के छात्रों का अपमान करना ही प्रतीत होता है। इन कमरों में अगर आप बकरी को बांधेंगे तो वह भी विद्रोह कर देगी और दूध देने से साफ़ इंकार कर देगी। इन कमरों का उपयोग अगर युद्ध सामग्री रखने के लिये होता हो तो बात समझ आ सकती है। ऐसे ही छोटे – छोटे बिना खिड़की वाले कमरे भूली भटियारी के महल में भी दिखाई दिये थे।
तीन गुम्बद वाला मंडप
इसी परिसर में तीन गुम्बद वाला एक मंडप और भी है जिसके बारे में कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि ये सभागार रहा होगा। कुछ अन्य इतिहासकार इसे भी मकबरा बताते हैं पर वहां खोजने से भी कोई कब्र नहीं मिलती।
इस मंडप में भी खंभों का बिल्कुल अलग शैली का होना अनेक प्रश्नचिह्न खड़े करता है। इस परिसर से मात्र 4.5 किमी दूर कुतुब मीनार परिसर है। वहां पर 27 हिन्दू व जैन मंदिरों को ध्वंस करके उनके स्तंभों के सहारे कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद खड़ी की गयी, ये ऐतिहासिक तथ्य है जो हर कोई जानता है। वहां पर भी स्तंभों पर की गयी कलाकारी और शेष मस्जिद के स्थापत्य में आकाश – पाताल का अंतर है।
देखें – कुतुब मीनार परिसर !
फ़िरोज़ शाह तुग़लक का मकबरा
फिरोज़ शाह तुग़लक के मकबरे के बारे में जो सबसे मनोरंजक तथ्य है, वह ये कि इसका निर्माण खुद फिरोज़ शाह तुग़लक ने अपनी मृत्यु से 38 साल पहले करा दिया था। फिरोज़ शाह तुग़लक की मृत्यु सन् 1388 में हुई, जबकि इस मकबरे का निर्माण 1350 में ही हो गया था।
जैसा कि मैने पहले बताया कि इस परिसर के सभी प्रमुख निर्माण अंग्रेज़ी के L आकार में किये गये थे। जहां आधार और लंब रेखायें मिलती हैं, ठीक वहीं पर फिरोज़शाह का मकबरा है। इस मकबरे का गुम्बद इस पूरे परिसर में सबसे ऊंचा है। वह वर्गाकार है (13.5 मीटर) और इसमें फिरोज़शाह तुग़लक की कब्र के अलावा और भी कुछ कब्र हैं जिनके बारे में अनुमान लगाया जाता है कि वह फिरोज़शाह के बेटे और पोते की रही हो सकती हैं।
इस मकबरे से जुड़ी हुई मदरसे की उत्तरी और पश्चिमी विंग हैं। वहीं पश्चिमी विंग के निकट अब पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग का कार्यालय बना दिया गया है।
कुल मिला कर हौजखास परिसर में आप एक दिन आराम से बिता सकते हैं। जब खंडहर देखते – देखते थक जायें तो नर्म मुलायम घास पर विश्राम कीजिये। भूख लगे तो एक से एक रेस्तरां हैं, जहां आप अपनी जेब खाली कर सकते हैं। झील के चारों ओर चक्कर लगाते लगाते थक जायें तो अपनी महबूबा को लेकर किसी डिज़ायनर बुटीक में चले जाइये और लाख – डेढ़ लाख रुपये की साड़ी या गाउन दिला दीजिये ! किसी आर्ट गैलरी में भी कुछ घंटे बिताये जा सकते हैं।
अगली हैरिटेज वॉक पर साथ चलने के लिये तैयार रहियेगा। जल्द ही पुनः मिलते हैं।