- सहारनपुर से जम्मू रेल यात्रा के अद्भुत अनुभव
- जम्मू से श्रीनगर यात्रा – राजमा चावल, पटनीटॉप, सुरंग, टाइटेनिक प्वाइंट
- श्रीनगर के स्थानीय आकर्षण – चश्मा शाही, परी महल, निशात बाग, शालीमार बाग
- काश्मीर का नगीना डल झील – शिकारे में सैर
- गुलमर्ग – विश्व का सबसे ऊंचा गण्डोला और बर्फ़ में स्कीइंग
- काश्मीर – पहलगाम यात्रा डायरी और वापसी
मितरों ! पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि कैसे बैठे बिठाये हमारा और हमारे एक मित्र परिवार का अचानक ही काश्मीर घूमने का कार्यक्रम बन गया। हम सहारनपुर से train no. 14645 शालिमार एक्सप्रेस से चल कर सुबह जम्मू तक आ चुके हैं जहां रेलवे स्टेशन के बाहर एक नयी नवेली Ford Fiesta टैक्सी और एक हद से ज्यादा बातूनी ड्राइवर प्रीतम प्यारे हमारी प्रतीक्षा में थे। अब जम्मू से श्रीनगर तक की रामकहानी आपके हवाले !
सूर्योदय से कुछ पहले, आधे अंधेरे, आधे उजाले में, हैलोजेन लाइटों के प्रकाश में जम्मू की सड़कें इतनी सुन्दर लग रही थीं जितनी पहले कभी भी नहीं लगी थीं । पांच – सात मिनट चलने के बाद ही प्रीतम प्यारे ने कार सड़क के किनारे रोक ली और बोला, “मैं अभी आया। आप भी चाहें तो हल्का हो लें । रात भर की यात्रा करके चले आ रहे हैं।“
मैने खिड़की में से बाहर झांक कर देखा तो दस-पन्द्रह सीढ़ी चढ़ कर एक झोंपड़ी नुमा भवन नज़र आया जिस पर सुलभ इंटरनेशनल का बोर्ड लगा हुआ था। पहले तो सबने ड्राइवर महोदय को मना कर दिया कि आप ही जाओ पर फिर अपनी अन्तरात्मा में झांका तो सबको लगा कि “यही वो जगह है, यही वो फिज़ा है” (जिसकी हम सब को बहुत जरूरत थी)
जब तक मेरा नंबर आ पाता, मैं सुलभ कांप्लेक्स के काउंटर पर जाकर खड़ा हो गया जहां एक सज्जन गुल्लक लिये बैठे थे। उनके पीछे एक बाबाजी का चित्र लगा था जिनकी एक आंख कुछ छोटी थी। मैने उस चित्र की ओर इशारा करके पूछा कि ये कौन हैं? उसने बताया – “हमारे जम्मू में एक पहुंचे हुए बाबा हैं, एक बार मेरी मां मुझे लेकर उनसे मिलने गयी। । मैं तीन-चार साल से नवीं कक्षा में फेल हो रहा था पर मेरी मां मेरी इतनी सी असफलता बर्दाश्त नहीं कर पाई और मुझे बाबा जी के आगे खड़ा कर दिया और बाबा जी से मेरी पढ़ाई, कैरियर और शादी के बारे में पूछने लगी। बाबा ने मुझसे पूछा कि बच्चा, क्या करना चाहते हो? मैने अपने दिल की बात बता दी कि बाबा, पढ़ने के तो नाम से ही उबकाई आती है, दिल घबराता है। आप मेरे लिये कुछ ऐसा बिज़नेस बताइये जिसमें कुछ भी करना न पड़े । बस कुर्सी पर बैठे रहो, सारी दुनिया काम करे और उलटे आपको काम करने के पैसे भी दे। बाबा कुछ क्षण सोचते रहे फिर बोले, “बेटा, फिर तो तू सुलभ शौचालय खोल ले।“ बस, मुझे उनकी बात भा गई और मैने ये काम शुरु कर दिया। इस शौचालय में जो कुछ भी है, सब बाबाजी का ही प्रसाद है।“
मेरे साथी अपना काम निबटा कर कार की ओर जा चुके थे अतः मैने भी उस युवक का साक्षात्कार वहीं पर लपेटा, फटाफट उस होनहार कारोबारी युवक को पैसे दिये और प्रसन्न वदन कार में आकर बैठ गया। कार की प्रसन्नता का भी पारावार न था, बड़ी अच्छी ’पिक अप’ का प्रदर्शन करते हुए तेजी से अपने गन्तव्य की ओर बढ़ चली ! और भला क्यों न हो? कार पर लोड भी तो कुछ कम हो गया था।
नेट पर मैने जब जांच – पड़ताल की थी तो श्रीनगर और जम्मू के बीच की दूरी 293 किमी बताई गई थी। मुझे लगा था कि अगर 60 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से भी चलें तो लगभग 5 घंटे में श्रीनगर पहुंच जायेंगे। परन्तु हमें श्रीनगर पहुंचने में लगभग 12 घंटे लगे। राष्ट्रीय राजमार्ग 1 A पर चलते हुए आधा घंटा ही हुआ होगा कि हमें इस बात का आभास होने लगा था कि जम्मू की सुरक्षा का उत्तरदायित्व हमारी थल-सेना बड़ी मुस्तैदी से संभाले हुए है। जम्मू काश्मीर में सर्दियों में राजधानी जम्मू में रहती है और गर्मियों में श्रीनगर में शिफ्ट हो जाती है। पूरे प्रशासनिक अमले को जम्मू से श्रीनगर और श्रीनगर से जम्मू स्थानान्तरित करने में लाखों – करोड़ों रुपये खर्च हो जाते हैं पर क्या करें? बेचारे मंत्री और अधिकारी गण न तो श्रीनगर में सर्दियों में रह सकते हैं और न ही गर्मियों में जम्मू में। इस शिफ्टिंग को सेना की सुरक्षा के घेरे में अंजाम दिया जाता है। इस राष्ट्रीय राजमार्ग के विश्वप्रसिद्ध ट्रैफिक जाम की मूल वज़ह यही मानी जाती है।
पर मुझे लगता है कि ट्रैफिक जाम की असली वज़ह वे सब टैक्सी और कार चालक हैं जिनको पहाड़ी सड़कों पर चलने के कायदे-कानूनों के प्रति मन में कोई सम्मान नहीं है। सड़क पर एक बस या ट्रक रुका हुआ देख कर हम उसके पीछे अपनी गाड़ी रोकने के बजाय बगल में से आगे निकलने का प्रयास करते हैं और इस प्रकार एक के बजाय दो पंक्ति बन जाती हैं और सामने से आने वालों के लिये मार्ग अवरुद्ध कर देते हैं। मुझे आश्चर्य होता है कि जिन अधिकारियों के कंधों पर यातायात व्यवस्था को सुचारु बनाये रखने का उत्तरदायित्व है, वह इस अराजकता को देख कर भी इसका उपाय क्यों नहीं करते। सबसे अच्छा उपाय तो यही है कि हर वह वाहन जो लाइन तोड़ कर आगे आये, उससे कम से कम पांच हज़ार रुपये जुर्माना वसूल किया जाये, न दे तो सब लोगों के सामने उसके मुंह पर खींच कर दस-बीस झापड़ रसद किये जायें ताकि उसे जीवन भर के लिये सबक मिल जाये। इससे बाकी जनता को जीवन भर के लिये सबक मिल जाता है और एक समस्या का स्थाई निदान हो जाता है। खैर !
जम्मू से निकलते ही हमने प्रीतम प्यारे को बता दिया था कि हमारा पहला विराम पटनी टॉप में लगेगा। रास्ते में कुद से पतीसा भी लेंगे। घुमक्कड़ डॉट कॉम पर मनु प्रकाश त्यागी की कलम से लिखा गया मजेदार वृत्तान्त मैं पढ़ चुका था जो न सिर्फ पटनीटॉप के बारे में, बल्कि कुद और वहां की पतीसे की दुकानों के बारे में बारे में मनोरंजक जानकारी लिये हुए था। मेरे विचार में सौ किमी की दूरी के लिये अधिकतम दो घंटे पर्याप्त होने चाहिये थे परन्तु सड़क पर मिलने वाले भीषण ट्रैफिक जाम हमारी गति को मंद कर रहे थे।
ऐसे ही एक विलक्षण और ऐतिहासिक ट्रैफिक जाम में पंकज और मैं कार से उतरे और काफी आगे तक जाकर जायज़ा लिया कि करीब कितने किलोमीटर लंबा जाम है। यातायात पुलिस के सिपाहियों को जाम खुलवाने के कुछ गुरुमंत्र भी दिये क्योंकि सहारनपुर वाले भी जाम लगाने के विशेषज्ञ माने जाते हैं। हम अपनी कार से लगभग १ किलोमीटर आगे पहुंच चुके थे जहां गाड़ियां फंसी खड़ी थीं और जाम का कारण बनी हुई थीं। आगे-पीछे कर – कर के उन तीनों गाड़ियों को इस स्थिति में लाया गया कि शेष गाड़ियां निकल सकें। वाहन धीरे – धीरे आगे सरकने लगे और हम अपनी टैक्सी की इंतज़ार में वहीं खड़े हो गये। सैंकड़ों गाड़ियों के बाद कहीं जाकर हमें अपनी सफेद फोर्ड आती दिखाई दी वरना हमें तो यह शक होने लगा था कि कहीं बिना हमें लिये ही गाड़ी आगे न चली गई हो। ड्राइवर ने गाड़ी धीमी की और हमें इशारा किया कि हम फटाफट बैठ जायें क्योंकि गाड़ी रोकी नहीं जा सकती। जैसे धोबी उचक कर गधे पर बैठता है, हम कार के दरवाज़े खोल कर उचक कर अपनी अपनी सीटों पर विराजमान हो गये। पांच सात मिनट में ही पंकज का दर्द में डूबा हुआ स्वर उभरा! “मैं तो लुट गया, बरबाद हो गया।“ मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि पंकज एक मिनट के लिये भी मेरी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ था तो फिर ऐसा क्या हुआ कि वह लुट भी गया और मुझे खबर तक न हुई। रास्ते में ऐसा कोई सुदर्शन चेहरा भी नज़र नहीं आया था, जिसे देख कर पंकज पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया होती। गर्दन घुमा कर पीछे देखा तो पंकज भाई आंखों में ढेर सारा दर्द लिये शून्य में ताक रहे थे। उनकी पत्नी चीनू ने कुरेदा कि क्या होगया, बताइये तो सही तो बोला, “मेरा मोबाइल कहीं गिर गया।“
कार रोक कर पंकज ने कार के फर्श की, बैगों की, और अपनी सभी जेबों की तलाशी ली पर मोबाइल नहीं मिलना था तो नहीं मिला। पता नहीं, सुलभ इंटरनेशनल पर ही गिर गया था या चलती कार में उचक कर बैठते समय पैंट की जेब से बाहर सरक गया था। आधा घंटे तक पंकज का मूड ऑफ रहा। फिर थर्मोकोल के गिलासों में पेप्सी पी-पी कर हम सबने ग़म गलत किया और आगे की राह पर बढ़े।
साढ़े आठ के करीब समय हो चुका था । पंकज के बच्चे की भी आंख खुल गई थी और वह भूख से कुनमुना रहा था। चीनू के एक बैग में उसकी पूरी रसोई का जुगाड़ था। मिल्क पाउडर, चीनी, बिजली की केतली, अंतहीन नाश्ता, कल रात के बचे हुए परांठे आदि। हमारे पास भी पूरियां, करेले की सब्ज़ी, चिप्स, चौकलेट, टॉफी, खट्टी-मीठी गोलियां आदि भरपूर मात्रा में थीं। कार रोक कर खाने पीने के दोनों बैग बूट में से निकाल कर आगे ही रख लिये गये। केतली का तो उपयोग हो नहीं सकता था क्योंकि बिजली का कनेक्शन कहां से लाते? अतः किसी चाय की दुकान की प्रतीक्षा होने लगी ताकि पानी उबाल कर बच्चे के लिये दूध बनाया जा सके। जैसे ही एक ऐसी दुकान दिखाई दी, गाड़ी रोक कर इस कार्य को भी सम्पन्न किया गया।
चलते-चलते कई घंटे हो चुके थे और मेरी गणना के अनुसार पटनीटाप अब तक आ जाना चाहिये था। ड्राइवर महोदय से पूछा कि पटनीटॉप कितनी दूर है। बोला, “अगले टर्न पर आ रहा है। पर इस समय वहां आपको कुछ नहीं मिलेगा। न बर्फ और न ही हरियाली। सीधे चले चलते हैं।“ हम भी जिद पर अड़ गये कि नहीं, हमें तो जाना है। उसने कहा कि ठीक है। पर जाम की वज़ह से काफी देर हो चुकी है। हद से हद एक घंटा रुक कर आगे बढ़ चलें तो टाइम से श्रीनगर पहुंच पायेंगे।“
पटनीटॉप और नाग देवता मंदिर पर पकौड़ियां और चाय
हमने ये यात्रा 2012 मार्च में की थी, उस समय जम्मू – श्रीनगर हाइवे को 1A कहा जाता था। बाद में इसका नाम श्रीनगर कन्याकुमारी हाईवे क्रमांक 44 हो गया है। यही नहीं, डा. श्यामा प्रसाद मुखर्जी सुरंग बन जाने के बाद अब पटनीटॉप और कुद कस्बा रास्ते में नहीं आते हैं। 9 किमी से भी अधिक लंबी सुरंग ने वर्ष 2017 के बाद इस मार्ग पर चलने वाले वाहनों के लिये 30 किमी की यात्रा बचा दी है यानि जब सड़क और मौसम बिल्कुल साफ़ हों तो लगभग 2 घंटे का यात्रा समय घटा दिया है। अगर कुद और पटनीटॉप वाले इलाके में हिम स्खलन / भू स्खलन हो गया हो और कई किमी लम्बा जाम लगा हुआ हो फिर तो भगवान ही मालिक है। एक दिन से अधिक के लिये भी वाहन वहां पर फंसे रहते रहे हैं।
पटनीटॉप की सड़क पर मुड़ते ही बैरियर मिला तो ड्राइवर ने कहा कि पर्ची के पैसे दे दीजिये। पंकज भाई बोले, “सारे टोल-टैक्स, बैरियर, ड्राइवर के खाने – पीने, पार्किंग सहित रेट तय हुआ था। पैसे आप ही को देने हैं। प्रीतम भुनभुनाते हुए बोला, “मैं कब मना कर रहा हूं। छुट्टे पैसे नहीं हैं, इसलिये आपसे उधार मांग रहा हूं, आप मेरे बिल में से काट लेना।“ पंकज ने संतुष्टि के साथ कहा, “ऐसा है तो ठीक है, ये लो 100 रुपये उधार !” हमारी श्रीमती जी ने बड़ी श्रद्धापूर्ण दृष्टि से पंकज की ओर देखा और फिर आंखों ही आंखों में मुझसे बोली, “देखा, इसे कहते हैं समझदार इंसान ! कुछ सीख लो आप भी !” अट्ठाइस वर्ष पुरानी शादी हो तो मियां बीवी बिना मुंह से कुछ बोले भी एक दूसरे की सारी बातें समझने लगते हैं।
नाग देवता मंदिर के आस-पास गाड़ी रोक कर ड्राइवर ने कहा, “चाय वगैरा जो भी पीनी हो, आप यहां पी लें । एक ओर पहाड़ी थी और दूसरी ओर खाई। खाई की तरफ चार-पांच खोखे टाइप दुकानें थीं । एक ठीक-ठाक सी दुकान देखकर चाय मंगाई, बच्चे के लिये दूध गर्म किया। सड़क पर पड़ी कुर्सियों पर बैठ गये। दुकानदार ने अपनी दुकान के आगे लकड़ी का काउंटर बना कर न जाने कौन – कौन सी जड़ी-बूटियां सजाई हुई थीं । शायद वह चीजें कहवा बनाने के काम आती हैं। ड्राइवर को चाय के लिये पूछा तो उसने मना कर दिया, अभी पांच मिनट पहले के घटनाक्रम के बाद उसका मूड कुछ बिगड़ सा गया था। नाग देवता मंदिर की ओर जाने के लिये जो गली है, उसके मुहाने पर प्याज़ की पकौड़ियां तलता हुआ एक व्यक्ति मिला। उसकी कढ़ाई में जो तेल था, वह काला नहीं, पारदर्शी था। साफ सुथरा का सामान देख कर मैने दो प्लेट पकौड़ी तैयार कराईं और ले जा कर उस मेज़ पर टिका दीं जहां हमारे परिवार वाले चाय की चुस्कियां ले रहे थे। पहले तो सब ने कह दिया कि इतनी सारी पकौड़ी क्यों ले आये? पर फिर खाने लगे तो दो प्लेट का और आर्डर कर दिया। अनारदाने की चटनी के कारण ये पकौड़ी कुछ विशेष स्वादिष्ट लग रही थीं।
मंदिर के दर्शन कर हम आगे बढ़े तो एक विशाल प्रकृति-निर्मित पार्क में जम्मू कश्मीर टूरिज़्म कार्पोरेशन की हरी हरी झोंपड़ियां (huts) देख कर टैक्सी रोक दी गई और हम सब बर्फ की उम्मीद में इधर – उधर भटकने लगे। बर्फ मिली तो जरूर पर मिट्टी और घास में सनी हुई। उस बर्फ से खेलने का ख़याल भी मन में नहीं आया, बस उन हट्स के आस-पास दस-पांच फोटो ऐसे खींची गईं मानों हम उस हट में ही सप्ताह भर से रह रहे हों। वहां से बाहर निकले तो देखा कि एक पान वाला अपनी चलती फिरती दुकान सजा कर खड़ा है। उसकी बोहनी कराने के लिये हमने दस-दस रुपये के मीठे पान खाये। मैने बहुत कोशिश की कि एक पान प्रीतम प्यारे को भी खिलाया जाये ताकि कम से कम एक घंटे के लिये तो उसका मुंह बन्द हो सके पर ड्राइवर ने मना कर दिया तो मैने वह पान डैश बोर्ड पर रख दिया जहां मेरा मोबाइल और टोपी रखी थी। रात्रि में श्रीनगर पहुंच कर जब अपनी टोपी उठाई तो उसका हाल-बेहाल था। पान का गुलकन्द टपक – टपक कर मेरी फर की टोपी को बरबाद कर चुका था। कोई आकर्षक नज़ारा पटनीटॉप में हम देख पाने में असमर्थ रहे। पटनीटॉप से वापस राष्ट्रीय राजमार्ग 1A पर आते समय हमें बहुत सारी बर्फ सड़क के दोनों ओर एकत्र की हुई दिखाई दी पर वह सब कीचड़ की संगति में रहने के कारण बेकार हो चुकी थी और उसमें सौन्दर्य तलाशना उतना ही कठिन था जितना सरकारी कार्यालयों में कर्त्तव्यपरायण और ईमानदार अधिकारी और कर्मचारी खोजना।
चिनाब नदी के किनारे किनारे कई मील के सफर के दौरान मैं चलती कार में से फोटो खींच कर अपना मन लगाये रहा और पीछे के सीट पर ये तीनों सज्जन और सज्जनियां बैग में से निकाल निकाल कर कभी बिस्कुट तो कभी नमकीन तो कभी परांठे तो कभी पूरी तो कभी चिप्स खाते रहे। जब कभी मैं उनकी ओर गर्दन घुमाता तो कोई न कोई थैली मेरी ओर भी बढ़ा देते ।
अरे हां, रास्ते में बहुप्रतीक्षित कुद भी आया था मगर प्रीतम प्यारे ने सुझाव दिया कि वापसी में घर के लिये पतीसा पैक कराते ले जाइयेगा, अभी रुकने का कोई फायदा नहीं है। हमने भी प्रतिरोध नहीं किया।
बनिहाल बांध और राजमा चावल
जवाहर टनल से कुछ ही किलोमीटर पहले हमारे टैक्सी चालक महोदय ने एक बड़े खतरनाक मोड़ पर बने हुए ढाबों के आगे कार खड़ी कर दी। यहां से बनिहाल हाइडिल प्रोजेक्ट के अन्तर्गत बने हुए एक बांध का विहंगम दृश्य दिखाई देता है। ढाबे का नाम शायद लक्ष्मी ढाबा था जो बकौल प्रीतम प्यारे, अपने राजमा-चावलों के लिये जगत् विख्यात है। “जम्मू से श्रीनगर अगर सड़क से जाना हो तो इस ढाबे पर बिना राज़मा-चावल खाये आगे जाना पाप है।“ हम सब ने कहा कि हमारा तो पेट भरा हुआ है, आप खा लो। पर हम वहां के प्राकृतिक दृश्य देखने के मूड से बाहर निकल आये। ढाबे में बहुत भीड़ थी और एक प्लेट राजमा-चावल में नपने से नाप कर पूरे 50 ml. घी डाला जाता देख कर लगा कि यह highly lubricated भोजन शरीर में जायेगा तो पेट के रास्ते में ट्रैफिक जाम जैसी कोई समस्या तो आ ही नहीं सकती! बल्कि पेट के ढलवां रास्ते में ब्रेक फेल होने का भी खतरा है। (कई-कई किलोमीटर लम्बी गाड़ियों की कतार देखते-देखते दिमाग़ में ट्रैफिक जाम कुछ ज्यादा ही समा गया था शायद इसलिये खाने में भी वही उपमा सूझ रही थीं )!
ड्राइवर महोदय की सलाह मानते हुए हमने यह सोच कर एक प्लेट का आर्डर किया कि दो-दो चम्मच हम चारों ही खा लेंगे क्योंकि रास्ते भर खाते हुए आने के कारण भूख तो है ही नहीं। एक प्लेट खा कर लगा कि चलो, एक और मंगवा लेते हैं। फिर दो प्लेट का और आर्डर दे दिया । बैरा हमें मन्द स्मित के साथ निहार रहा था । शायद यह उसके लिये रोज़ मर्रा का दृश्य होता हो। ढाबे के पृष्ठ भाग में जाकर मैने बनिहाल बांध के कुछ फोटो भी खींच लिये।
कार जैसे-जैसे जवाहर टनल की ओर बढ़ रही थी, झकाझक सफेद बर्फ से ढकी पीर पंजाल पर्वत श्रृंखला हमें लुभाये चली जा रही थी। मेरा कैमरा चलती कार में से ही क्लिक-क्लिक करता चल रहा था। प्रीतम प्यारे ने कहा भी कि यहां फोटो खींचने के लिये कुछ नहीं है। आगे आपको ऐसे-ऐसे सीन मिलेंगे कि बस।
2.85 किमी लम्बी जवाहर सुरंग
कुछ ही क्षणों में हम जवाहर सुरंग के मुहाने पर थे। जम्मू और काश्मीर में दो ही चीज़ें सबसे अधिक इफरात में दिखाई दे रही थीं – एक तो बर्फ से लदे पहाड़ और दूसरे भारतीय सेना के जवान! जवाहर सुरंग के आस-पास फोटो खींचने की इच्छा थी पर अनुमति नहीं थी, चलती गाड़ी में से ही जो मिला, सहेज लिया और 2.85 km लंबी सुरंग में प्रविष्ट हो गये। यह सुरंग निश्चय ही सिविल इंजीनियरिंग का एक नायाब नमूना है।
बनिहाल काज़ीगुंड सुरंग
नवीनतम जानकारी के अनुसार बनिहाल से काज़ीगुंड को मिलाने वाली 8.5 किलोमीटर लम्बी सुरंग 4-lane highway है। वास्तव में ये अप और डाउन दो सुरंगें हैं और दोनों ही two-lane tubes हैं। हर 500 मीटर पर ये दोनों tubes आपस में जोड़ दी गयी हैं ताकि रखरखाव और किसी दुर्घटना की स्थिति में ट्रेफ़िक को खाली कराया जा सके। इतनी लंबी सुरंग में ताजी हवा जाती रहे, वाहनों का धुआं अंदर रुका न रहे, इसके भी इंतज़ाम किये गये हैं। साथ ही सुरक्षा के अत्याधुनिक इंतज़ाम यहां पर हैं। ये सुरंग जवाहर सुरंग से 400 मीटर नीचे है और इस कारण अधिक सुरक्षित भी है। ये सुरंग चालू हो जाने के बाद जम्मू और श्रीनगर की सड़क मार्ग की दूरी को 16 किमी कम कर देगी। ये सुरंग बन जाने के बाद इसके 400 मीटर ऊपर बनी हुई 2.85 किमी लम्बी जवाहर सुरंग का कोई उपयोग नहीं रह जायेगा। फिर टाइटेनिक प्वाइंट भी रास्ते में नहीं आयेगा।
बनिहाल काज़ीगुंड रेल सुरंग
भारतीय रेलवे ने ऊधमपुर – बारामुला रेल मार्ग के बीच में चुनौती बने हुए पीर पंजाल पर्वत में 11.215 किमी लंबी रेल सुरंग बना कर इस चुनौती का बखूबी मुकाबला कर लिया है। यह सुरंग बनिहाल को काज़ीगुंड से जोड़ती है। बर्फ़ से ढंके हुए रेल मार्ग पर यात्रा करना मेरे जीवन का बहुत बड़ा सपना बन गया है जो काश्मीर की अगली यात्रा में पूरा किया जायेगा।
टाइटेनिक प्वाइंट
जवाहर सुरंग पार करने के बाद पहाड़ से उतरना शुरु किया ही था कि प्रीतम प्यारे ने टाइटेनिक प्वाइंट पर गाड़ी पार्क कर दी। इस टाइटेनिक प्वाइंट का वर्णन और कुछ चित्र मैं गूगल अर्थ पर भी देख चुका था। जिस समय हम वहां पहुंचे, केवल एक परिवार वहां मटरगश्ती करता दिखाई दिया। चाय की दुकान थी, मगर बन्द थी। जब हमारी ’जनानियों’ ने प्रीतम प्यारे को आवाज़ लगा कर चाय के बारे में पूछा तो वह न जाने कहां से उस बन्द दुकान के दुकानदार को पकड़ लाया। उसने अपनी दुकान का अद्भुत दरवाज़ा उठाया, छलांग लगा कर अंदर गया और चाय बना कर दी जिसे पीकर हमारी दोनों महिलाएं ऐसे ही तेजस्वी और ओजवान् हो गईं मानों किष्किंधा पर्वत से हनुमान जी ने संजीवनी बूटी लाकर सुंघाई हो।
अब तक हम कार के सफर से उकताने लगे थे। खास कर मुझे तो अपनी कमर में अकड़न का ऐहसास हो रहा था ऐसे में टाइटेनिक प्वाइंट पर हम आवश्यकता से अधिक देर रुके रहे और अपने अस्थि तंत्र की एक्सरसाइज़ करते रहे। बर्फ का यहां पर भी वही हाल था – घास और कीचड़ में सनी हुई।
जीवन का पहला कहवा काज़ीगुंड में
टाइटेनिक प्वाइंट से आगे बढ़े तो शाम होने को थी और श्रीनगर पहुंच कर होटल ढूंढने की चिन्ता मन पर सवार होने लगी थी। हरियाली कहीं भूले भटके ही दिखती थी, चिनार के विश्वप्रसिद्ध पेड़ भी बिल्कुल गंजे थे। सड़क किनारे के भवनों पर सेना के जवान दिखाई देते रहे। काफी लंबा सफर अभी भी बाकी था अतः कहीं भी रुके बिना सीधे श्रीनगर पहुंचने का मन कर रहा था। काज़ीगुंड में फिर प्रीतम ने गाड़ी रोक दी और कहा कि यहां से कहवा पीते हुए चलेंगे। मैं चाय नहीं पीता पर कहवा पी लिया, अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा लगा।
आ गये श्रीनगर! अब होटल ढूंढें !
श्रीनगर पहुंचते पहुंचते सूर्यास्त हो चुका था। ड्राइवर ने डल झील की मुख्य सड़क बुलेवार्ड रोड के समानान्तर न्यू खोनखान रोड पर ममता होटल के आगे कार खड़ी की और कहा कि आप इस होटल को देख लें, अगर पसन्द न हो और और होटल भी देख लेंगे। मेरे मन में कल्पना थी कि डल झील के सामने होटल होगा, रात को पानी में झिलमिलाती हुई लाइटें दिखाई देंगी । पर यहां मुझे न तो वह लोकेशन पसन्द आई और न ही वहां रुकने का मन किया। होटल के रिसेप्शन पर गये तो उन्होंने भी कह दिया कि कमरे उपलब्ध नहीं हैं। इसके बाद जब मैने जोर देकर कहा कि बुलेवार्ड रोड पर चलते हैं तो हम सब कार में वापस बैठे और वहां कई होटल में भटके। पर पंकज को इन होटलों के रेट बहुत ज्यादा अनुभव हुए। बोला, “सिर्फ रात – रात की ही तो बात है, सुबह तो हम घूमने निकल ही जायेंगे। कल शाम को कोई और दूसरा अच्छा होटल देख लेंगे।” मैने उसकी भावना को समझते हुए खो्नखान रोड पर ही अच्छा होटल तलाशने हेतु सहमति व्यक्त कर दी और काफी भटकने के बाद हमें एक साफ – सुथरा होटल – कोहिनूर मिल ही गया जिसने पंकज की जानदार सौदेबाजी के बाद, 800 रुपये प्रतिदिन पर हमें दो कमरे देने स्वीकार कर लिये। कमरे में सामान टिका कर, गर्म पानी में दिन भर की थकान मिटा कर हम पुनः बुलेवार्ड रोड पर गये और ड्राइवर के सुझाव पर ही “पंजाबी तड़का” नामक शुद्ध शाकाहारी भोजनालय में खाना खाने पहुंचे। खाना हमें इतना रुचिकर प्रतीत हुआ कि अगले दिन सुबह का नाश्ता भी हम वहीं करने का निश्चय करके अपने होटल में वापिस आ गये।
मित्रों, इससे आगे की यात्रा अब कल करेंगे। आप यूं ही अगर हमारे साथ इस सफ़र में चलते रहे तो सच जानिये, हमें अपनी इस यात्रा का किस्सा सुनाने में उतना ही आनन्द आयेगा जितना इस यात्रा को संपन्न करने में आया था।
वाह जी वाह ब्लॉग लिखना तो आपसे सींखे। आंनद आ गया।
बहुत सुंदर वर्णन किया है। अगला भाग जल्द लिखिए।
प्रिय भूपेन्द्र रघुवंशी जी, आपका आभार कि आप इस ब्लॉग पर आये और कमेंट भी छोड़ा। आपकी इच्छा पूर्ति में ही व्यस्त हूं आजकल। दर असल ये सिर्फ आपकी ही नहीं, मेरी भी इच्छा पूर्ति का सवाल है। आठ साल से स्टोरी वहीं की वहीं अटकी पड़ी हुई है। अब जब पुरानी हार्ड डिस्क में से फोटो निकाल कर देख रहा हूं तो पुरानी सारी बातें एक एक कर के याद आती जा रही हैं। कब कहां गये थे, क्या क्या देखा था, क्या किया था आदि ! जल्द ही हाज़िर हो जाऊंगा आप सबके सामने अगली स्टोरी लेकर ।
पुनः धन्यवाद !
बहुत शानदार लिखा अंकल जी,ऐसा लगा जैसे य तो पढ़ा हुआ ह ,पर जसे ही आपने सुलभ काम्प्लेक्स की कहानी सुनाई सब कुछ फटाक से याद आ गया कि य तो मैने पहले भी ब्लॉग पर पढ़ रखी ह,पर फिर भी याद ताजा करने के लिये दुबारा भी पढ़ ली ह,दुबारा से याद ताजा हो गई.
प्रिय अशोक शर्मा, मैं पहले जिस वेबसाइट पर लिखता था, वहां हिन्दी वालों के लिये बहुत समस्या हो गयी है। इसलिये सोचा कि वहां से कुछ संस्मरण उठा कर ले आऊं और उनमें यथोचित परिवर्तन करके अपने ब्लॉग पर ही लगाऊं। धन्यवाद आपका, निरन्तर साथ देते रहने के लिये।
मैं तो बर्बाद हो गया।
बाबा का प्रसाद है ये तो।
सहारनपुर वाले जाम लगाने में expert हैं।
हा हा हा!
बहुत मज़ा आया, हालांकि हमलोग जब पाटनी टॉप गए थे अप्रैल में तो मौसम और नज़ारे दोनों ही मस्त थे, और नाग देवता मंदिर के बाहर तो बस देवदार और सांय सांय करती ठंडी हवा
जिस इको हट के बाहर आपने फोटो खिंचवाई उस वक़्त वहां का नज़ारा भी मस्त था एकदम इतनी हरियाली देवदार की और केसर बेचने वाले कश्मीरी.
वहीं से पास में ही एक अमुसेमेंट पार्क भी है।
हार्दिक धन्यवाद मोनालिसा! हमें भी यही बताया गया था कि जैसे जैसे गर्मी बढ़ेगी, काश्मीर का सौन्दर्य और निखरता चला जायेगा। जब हम गये तो बिल्कुल ऑफ सीज़न था, यानि पतझड़! इस पूरी ट्रिप में हमें सबसे ज्यादा मज़ा गुलमर्ग में ही आया या फ़िर मौसम खराब हो जाने के कारण पहलगाम में! उसके बारे में अभी लिखना बाकी है।
पुनः आनंद आ गया आदरणीय
हार्दिक आभार और मंगलकामनाएं, प्रिय मुकेश जी!
वाह साहब वाह
सच में मैंने आप को गुरुवर कह कर गलत नहीं किया
अब मैं बहुत खुश हूं कि आप को गुरु बना कर मैंने कोई गलती नहीं की है
सच में ड्राइवर अगर अच्छा मिल जाए तो
यात्रा का मजा और अधिक हो जाता है
ड्राइवर कभी भी गाइड से कम नहीं होते हैं
बस उन्हें खुश कैसे रखा जाए यह हमारे पर निर्भर है
प्रियवर राकेश जी,
कौन गुरु है और कौन चेला है, ये निर्णय करना तो बहुत कठिन हो जायेगा! 🙂 😀 पर हां, इतना अवश्य है कि आपका इस ब्लॉग पर आगमन मेरे लिये एक अत्यन्त आह्लादकारी अनुभूति है। आपके कमेंट का मुझे बेकरारी से इंतज़ार रहता है। कृपया अपना स्नेहभाव यूं हीं बनाये रखें।
सादर,
सुशान्त सिंहल