जयपुर प्रवास का आज तीसरा और अन्तिम दिन था जिसका शुभारंभ मैने सुबह 5 बजे होटल से हवामहल तक पैदल भ्रमण करके किया था। होटल लौटने से पहले ही मैने टैक्सी चालक को फोन करके कह दिया था कि हम आज भी टैक्सी का उपयोग करेंगे अतः वह होटल के नीचे 9 बजे तक आ जाये।
टैक्सी आने पर, कहां-कहां जाया जाये, कितना भाड़ा लगेगा आदि मुद्दों पर ड्राइवर महोदय से बातचीत हुई। यह तय हुआ कि सुबह सबसे पहले नाहरगढ़ फोर्ट और फिर जयगढ़ फोर्ट जायेंगे, फिर शहर में आकर लंच लेंगे इसके बाद टैक्सी हमें जन्तर – मन्तर पर छोड़ देगी ताकि हम जन्तर – मन्तर और सिटी पैलेस देख लें। शाम को हम कैसे समय बितायें यह हमारे ऊपर निर्भर था।
नाहरगढ़ फोर्ट
ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो जयपुर की रक्षा का दायित्व जिन तीन दुर्गों पर रहा है, वह हैं आमेर दुर्ग, जयगढ़ दुर्ग और नाहरगढ़ दुर्ग! आमेर और जयगढ़ अरावली पर्वत श्रंखला की जिस पहाड़ी पर स्थित हैं उसे चीलों का टीला नाम से भी जाना जाता है। नीचे आमेर दुर्ग और उसके 400 मीटर और ऊपर बढ़ें तो जयगढ़ दुर्ग। नाहरगढ़ दुर्ग उत्तर पश्चिम दिशा में है और जयपुर शहर के एकदम नज़दीक है। जयपुर – दिल्ली राजमार्ग पर शहर से बाहर निकलते हैं तो लेक पैलेस से कुछ आगे निकल कर बाईं ओर एक सड़क मुड़ती दिखाई देती है जो तुरन्जत ही दो भागों में विभक्त हो जाती है। बाईं ओर मुड़ने वाली सड़क नाहरगढ़ दुर्ग चली जाती है, जबकि दायीं ओर वाली जयगढ़ दुर्ग की ओर।
अगर आप जयपुर में चांदपोल बाज़ार में हैं तो वहां से नाहरगढ़ रोड पकड़ कर पैदल भी नाहरगढ़ दुर्ग पहुंचा जा सकता है, रास्ता 3 किमी से भी कुछ कम ही पड़ेगा। हां, इतना अवश्य है कि पहाड़ी की जड़ तक पहुंचने के बाद वहां से दुर्ग तक एकदम बढ़िया वाली चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी। मैं तो अगली बार इसी मार्ग से नाहरगढ़ जाने का निश्चय किये बैठा हूं! अस्तु !
हमें पहले नाहरगढ़ जाना था, अतः हमारी टैक्सी बाईं ओर मुड़ गई। सुनसान पहाड़ी रास्ते में एक मोर दिखाई दिया तो मैने ड्राइवर महोदय से टैक्सी रोकने के लिये कहा। जब तक टैक्सी रुकती और मैं अपना कैमरा लेकर बाहर निकल पाता, मोर झाड़ियों की ओर लपका । फिर भी एक चित्र खींचने का समय मिल ही गया।
नाहरगढ़ दुर्ग का प्राचीन नाम सुदर्शनगढ़ बताया जाता है। कहते हैं कि इस दुर्ग के निर्माण में बार-बार विघ्न आरहे थे, ज्योतिषियों ने बताया कि नाहरसिंह भूमिया की आत्मा वहां भटक रही है और वही इस दुर्ग के निर्माण में विघ्न डाल रही है। इस आत्मा की शांति के लिये यहां पहले नाहरसिंह भूमिया का एक मंदिर बनाया गया और फिर शेष किले का और माधवेन्द्र महल का सफलतापूर्वक निर्माण किया गया।
जैसा कि मैने ऊपर बताया, नाहरगढ़ दुर्ग जयपुर शहर के एकदम ऊपर और बहुत नज़दीक है। अतः किले की प्राचीर से ही नहीं बल्कि माधवेन्द्र महल के झरोखों से भी नीचे जयपुर नगर के मकान दिखाई देते हैं। यदि क्रिकेट खेलते हुए कोई बड़े वाला छक्का मार दे तो संभव है कि गेंद नाहरगढ़ की प्राचीर के अन्दर आ गिरे ! महल के झरोखों के पास खड़े हो जायें तो भयंकर लू भी ठंडी – ठंडी हवा में परिवर्तित हो जाती है अतः पंखे की आवश्यकता शायद ही कभी अनुभव होती हो। माधवेन्द्र महल मुझे बहुत कुछ भूल – भुलैया जैसा भटकाने वाला अनुभव हुआ। एक जैसे दिखाई देने वाले कक्ष, बरामदे और गलियारे ! कौन सा हिस्सा देख लिया है और कौन सा अभी देखना बाकी है, कुछ समझ ही नहीं आता। यदि आपकी श्रीमती जी आपके साथ में हों तो कृपया उनका हाथ थामें रहें ! फोटो खींचते खींचते मैं अपने मित्र अग्रवाल साहब से एक गलियारे में बिछुड़ गया तो फिर उनको ढूंढना असंभव जैसा ही हो गया। थक कर नीचे प्रांगण में पहुंचा तो देखा कि वह बैंच पर बैठे हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि वह भी मुझे ढूंढते रहे थे और जब मैं नहीं मिला तो उनको यही उचित लगा कि नीचे प्रवेश द्वार के पास बैठ कर इंतज़ार कर लिया जाये। हो सकता है आपकी श्रीमती जी इतनी शांत चित्त न हों।
विकीपीडिया के अनुसार नाहरगढ़ दुर्ग का निर्माण वर्ष 1734 में महाराजा सवाई जयसिंह द्वितीय द्वारा किया गया था। मुगलों से सामान्य संबंध होने के कारण इस दुर्ग को या जयपुर के राजाओं को कभी युद्ध की स्थिति का सामना नहीं करना पड़ा। अतः इस दुर्ग का उपयोग गर्मी से निज़ात पाने के लिये और जंगलों में आखेट के लिये ही होता रहा। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेज़ शासकों व उनकी महिलाओं की रक्षा के दृष्टिकोण से उनको नाहरगढ़ दुर्ग में शरण दे दी गई थी।
टिकट लेकर आधिकारिक रूप से दुर्ग में प्रवेश करने से भी पहले टेढ़ी-मेढ़ी, ऊंची-नीची पहाड़ियों पर दूर तक फैली हुई प्राचीर दिखाई दी जिसके लिये बताया जाता है कि यह प्राचीर तीनों दुर्गों तक, यानि नाहरगढ़ से जयगढ़ और आमेर दुर्ग तक जाती है और तीनों दुर्गों की सीमाओं को सुरक्षित रखती है। नाहरगढ़ में एक तोप है जिसे जयपुर की राज्य सरकार अप्रैल 1944 तक भी जयपुर वासियों को समय की जानकारी देने के लिये उपयोग करती थी। जन्तर मन्तर स्थित सम्राट यन्त्र द्वारा दिखाये जारहे समय को तोप की सहायता से पूरे नगर को सूचित कर दिया जाता था।
नाहरगढ़ बावड़ी
माधवेन्द्र महल के प्रवेश द्वार के ठीक सामने एक बावड़ी यानि stepwell है जो बहुत बड़ी तो नहीं है पर अपने समय में बहुत आकर्षक व महत्वपूर्ण रही होगी। वर्षा के जल को सहेजने के अलावा भी इस प्रकार की बावड़ियों का उपयोग सामुदायिक केन्द्र के रूप में होता चला आया है।
Once Upon a Time Restaurant / Padao Restaurant
माधवेन्द्र महल के बाईं ओर Once Upon a Time के नाम से एक रेस्तरां भी है जिसको कुछ लोग बहुत अच्छा और कुछ बेहद खराब बताते हैं। हमने खराब बताने वालों की बात पर यकीन करते हुए उधर की ओर रुख करना उचित नहीं समझा ! 🙂
नाहरगढ़ दुर्ग में ही, माधवेन्द्र महल के दाईं ओर राजस्थान पर्यटन विकास निगम द्वारा संचालित पड़ाव रेस्टोरेंट भी है। कुछ लोगों के अनुसार यह Once Upon a Time की तुलना में न केवल सस्ता है, बल्कि यहां का खाना कहीं बेहतर है। हम होटल से नाश्ता करके निकले थे और अभी सिर्फ 10.30 ही हुए थे, अतः हमें कुछ भी खाने – पीने की आवश्यकता अनुभव नहीं हो रही थी, अतः हम नाहरगढ़ दुर्ग को विदा कहते हुए टैक्सी में बैठ कर जयगढ़ दुर्ग की ओर बढ़ गये।
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तीस वर्षों की घुमक्कड़ी में जंगल, खंडहरों के साथ पुरातात्विक उत्खनन स्थल पर बोलते उल्लूओं के बीच इमली के पेड़ों के नीचे भी श्मशानों में खूब रातें गुजारी। लेकिन जो अनुभव कही नहीं हुआ, वह मुझे नाहरगढ में हुआ। रनिवास की उपरली मंजिल में पहुंच रोंगटे स्वत: ही खड़े हो गए। उस जगह पर अत्यधिक नकारात्मकता है, जो आदमी को रुकने नहीं देती।
ati uttam.. ab mujhe lg rha hai ki mujhe bhi ghumna shuru krna chahie.. 😉
You are right, Kalpana. Travelling gives us wider perspective, makes us much more knowledgeable and entertains us like anything. Start travelling with your friends and family and more importantly, start writing about experiences for others’ benefits also. Regards.