1. घुमक्कड़ों का कुंभ – ’ओरछा मिलन’ (सहारनपुर से झांसी तक यात्रा)
2. ओरछा में पहला दिन –
3. ओरछा में महामिलन – पर ये ओरछा है कहां?
’घुमक्कड़ी दिल से’ ग्रुप और मैं
वर्ष 2011 के दौरान मैने पहला यात्रा संस्मरण ’ऐसे पहुंचे हम मुंबई’ ghumakkar.com को प्रकाशन हेतु भेजा था और उसके लिये पाठकों से जो उत्साहजनक प्रतिक्रिया मिली, उससे न केवल घुमक्कड़ी का शौक परवान चढ़ने लगा बल्कि अपने सहृदय पाठकों को अपनी यात्राओं के किस्से सुनाने में भी अभूतपूर्व आनन्द आने लगा। फोटोग्राफी के प्रति शौक तो किशोरावस्था से ही पनपने लगा था अतः कहीं भी घूमते जाते समय कैमरा मेरे व्यक्तित्व का अनिवार्य अंग बन गया। यात्रा संस्मरण लेखन से एक विशेष उपलब्धि यह हासिल हुई कि कुछ बहुत अच्छे ब्लॉगर्स से परिचय हुआ जो उन दिनों घुमक्कड़ डॉट कॉम पर लिखा करते थे और बाद में अपने स्वतंत्र ब्लॉग पर भी लिखने लगे। कई सारे ब्लॉगर्स से यह परिचय आगे बढ़ कर मित्रता में परिवर्तित होगया।
एक दूसरे को बिना मिले, हज़ारों मील दूर बैठे व्यक्तियों में दोस्ती हो जाना, आपस में हंसी-मज़ाक और विचारों का सार्थक ढंग से आदान – प्रदान होने लगना, साथ – साथ घूमने की इच्छा का पनपना – यह इंटरनेट और सोशल मीडिया की दुनिया की हम सब को एक अनुपम देन है। व्हाट्स एप ने इस मि्त्रता को और अधिक गहराई दे दी है ।
मैने वह समय भी देखा है जब 24 शब्दों का एक टेलीग्राम भेजने के लिये हम तारघर पर रात को 10 बजे जाते थे और तार भेजने पर आने वाले खर्च को देखते हुए यह निर्णय लेना पड़ता था कि तार ’सामान्य’ गति से भेजा जाये या ’अर्जेण्ट’ ! अर्जेंट तार यानि, दुगना खर्च पर ये अर्जेन्ट तार अगले ही दिन पहुंच जाते थे। अपने पूरे संदेश को 24 शब्दों की अधिकतम सीमा में समेटना भी एक कला मानी जाती थी क्योंकि एक एक शब्द के पैसे खर्च होते थे।
मोबाइल फोन आये तो अपने साथ SMS भी लेते आये। पहले SMS के पैसे लगते थे, पर जल्द ही फ्री पैकेज मिलने लगे। लगा कि वाह, ये तो गज़ब की सुविधा मिल गयी। अब हम एक ही संदेश कई कई लोगों को भेजने में समर्थ हो गये और वह भी बिना धेला खर्च किये। चूंकि SMS संदेश एकदम पढ़ा जा सकता है, अतः उत्तर भी तुरन्त प्राप्त होने लगे। बस यहीं से मोबाइल चैटिंग शुरु हो गयी। स्मार्ट फोन पर व्हाट्स एप आया तो फोटो, आवाज़ व वीडियो का भी आदान- प्रदान संभव हो गया। फेसबुक के बाद व्हाट्स एप ने आपसी संपर्क बनाये रखने की प्रक्रिया में एक नया और महत्वपूर्ण आयाम जोड़ दिया। आज एक परिवार में बच्चा जन्म लेता है तो उत्साहित माता-पिता बच्चे के लेबर रूम से बाहर आते-आते उसके चित्र खींच कर दुनिया के अलग – अलग कोनों में अपने मित्रों व संबंधियों को भेज कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करने लगते हैं। दूल्हा घोड़ी पर बैठे – बैठे भी दुल्हन से चैट करता चलता है, अपनी सेल्फी खींच कर उसको भेजता रहता है।
इस सब पृष्ठभूमि में यह किसी के लिये भी आश्चर्य का विषय नहीं होना चाहिये कि जब मैं ’घुमक्कड़ी दिल से’ नामक व्हाट्स एप ग्रुप से 20 – 21 दिसंबर 2016 को जुड़ा तो न केवल मुझे, बल्कि इस ग्रुप पर मौजूद अन्य घुमक्कड़ों को भी बेइंतहा प्रसन्नता हुई। हम सब परम्परागत अर्थों में एक दूसरे से ’अनजान’ ही थे! 24-26 दिसंबर 2016 यानि तीन दिन के लिये इस ग्रुप ने ’ओरछा महामिलन’ का कार्यक्रम बनाया हुआ था जिसके अन्तर्गत 14 प्रदेशों से लगभग 40 सदस्य 24 व 25 दिसंबर को ओरछा में साथ-साथ रहने, घूमने फिरने वाले थे। इनमें कुछ घुमक्कड़ सपरिवार शामिल हो रहे थे और कुछ अकेले पहुंचने वाले थे। जब मुझे इस महामिलन का पता चला तो मैने भी इस महामिलन का हिस्सा बनने की इच्छा व्यक्त की जो पूरे ग्रुप ने सहर्ष स्वीकार कर ली। इस ग्रुप में केवल एक मुकेश – कविता भालसे परिवार से ही मेरा पूर्व परिचय था क्योंकि मैं उनसे घर पर एक बार जा चुका था और हमने मांडू यात्रा साथ- साथ की थी। घुमक्कड़ डॉट कॉम से ही आगरा निवासी घुमक्कड़-ब्लॉगर रितेश गुप्ता से भी परिचय हुआ था परन्तु उनसे सिर्फ फोन पर बात हुआ करती थी, आमना-सामना अभी तक नहीं हो पाया था।
irctc.co.in की साइट पर जाकर ट्रेन देखीं ताकि सहारनपुर से दिल्ली और दिल्ली से झांसी की यात्रा करके मैं 24 दिसंबर की सुबह मैं ओरछा पहुंच सकूं। सुबह झांसी पहुंचाने वाली किसी भी ट्रेन में मुझे आरक्षण नहीं मिल पाया तो मैने 24 दिसंबर की सुबह 7 बजे दिल्ली के हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन से चलने वाली ताज एक्सप्रेस में आरक्षण करा लिया। वापसी के लिये भी 25 दिसंबर को दोपहर 3.15 पर झांसी से यही ट्रेन पकड़ कर वापिस दिल्ली आने का कार्यक्रम बनाया। व्हाट्स एप ग्रुप से जुड़ जाने के बाद मुझे पल-पल की खबरें मिलती जा रही थीं और पता था कि दिल्ली, नोएडा, सोनीपत, अंबाला, आगरा आदि से ओरछा पहुंचने वाले लगभग 8 सदस्य 23 दिसंबर की रात्रि में अमृतसर – दादर एक्सप्रेस से निकल रहे थे जिनमें संजय कौशिक (सपरिवार), कमल कुमार सिंह (दिल्ली), रूपेश शर्मा (ग्रेटर नोएडा), बीनू कुकरेती, नरेश सहगल (अंबाला) और रितेश गुप्ता (सपरिवार), रोमेश कुमार शर्मा (ऊधमपुर) शामिल थे। इन्हीं के साथ मेरा भी आरक्षण हो जाये, ऐसी मेरी इच्छा थी जो भारतीय रेलवे ने तो पूरी नहीं की परन्तु इन मित्रों ने अवश्य पूरी कर दी। कैसे? यह भेद आगे खोला जायेगा।
एडमिन ऐसे ही थोड़ी ना बना देते हैं किसी को !
24 दिसंबर को सुबह ’घुमक्कड़ी दिल से’ ग्रुप पर मैने सूचना दे दी कि मैं रात को दिल्ली पहुंच रहा हूं और सुबह ताज एक्सप्रेस पकड़ कर दोपहर तक ओरछा पहुंचूंगा। मैने यह भी पूछा कि हज़रत निज़ामुद्दीन स्टेशन के आस-पास कहीं कोई बजट होटल हो तो बताएं जहां मैं रात बिता सकूं। इसका दिल को लुभाने वाला उत्तर हमारे ग्रुप के एक एडमिन संजय कौशिक ने दिया। उन्होंने कहा कि हम आपको अपने साथ अमृतसर – दादर एक्सप्रेस में ही एडजस्ट कर लेंगे यदि मैं थोड़ी बहुत कठिनाई झेलने के लिये तैयार हूं तो !!!
मेरे लिये भला इससे अधिक खुशी की बात और क्या हो सकती थी? रात भर दिल्ली में होटल में रुकना और उससे भी बढ़ कर 24 दिसम्बर का आधा दिन ट्रेन यात्रा में बरबाद करना – सभी कुछ बच रहा था। दिल्ली से झांसी और फिर झांसी से ओरछा अकेले यात्रा करने में कोई विशेष आनन्द तो आने वाला नहीं था! मैंने तुरन्त हामी भर दी कि मैं 7 बजे तक नई दिल्ली स्टेशन पर उपस्थित हो जाऊंगा ताकि 8.50 की अमृतसर दादर एक्सप्रेस (ट्रेन नं. 11058) में सवार हो सकूं! संजय कौशिक ने यह भी सूचित कर दिया कि वह मेरे लिये भी घर से खाना बनवा कर और साथ लेकर चलेंगे। एक अपरिचित परिवार की इस सदाशयता ने तो मुझे उनका मुरीद ही कर दिया। एडमिन ऐसे ही थोड़ी ना किसी को बना देते हैं!
मेरा घरवाला बहुत मारेगा!
घर से बैंक के लिये चला था तो यह सोच कर कि सहारनपुर से मैं शाम को 4.10 की 19019 देहरादून – बांद्रा पकडूंगा, पर उसके बजाय दोपहर को 1.15 की दिल्ली पैसेंजर पकड़ने के लिये स्टेशन जा पहुंचा। स्कूटर को स्टैंड वाले को थमाया, रसीद संभाल कर बैग में रखी और अपनी DMU गाड़ी की इंतज़ार में प्लेटफार्म नं. 2 पर जा खड़ा हुआ। ट्रेन आई तो खिड़की वाली सीट छांटने की सुविधा मिल गयी और आधा घंटा विलम्ब से ट्रेन दिल्ली की ओर चल पड़ी। ट्रेन के चलते ही एक ग्रामीण महिला ने कोहराम मचाना शुरु कर दिया कि उसके बैग से पैसे और मोबाइल किसी ने निकाल लिये। उसके रोने की आवाज़ तो अगल बगल की तीन-चार बोगी तक जा रही होगी पर आंखों में आंसू एक भी नहीं था। अपना बैग तीन-चार बार खंगालने के बाद भी जब उसे अपनी खोई हुई संपत्ति नहीं मिली तो वह अपने रुदन का वॉल्यूम और बढ़ाते हुए नानौता स्टेशन पर उतर गयी। वह बार-बार एक ही बात कहे जा रही थी कि उसका आदमी मोबाइल खोने पर उसे बहुत मारेगा!
हमारी डीएमयू ट्रेन शामली – बड़ौत रूट से दिल्ली जा रही थी और इस रूट पर एक भी स्टेशन ऐसा नहीं है जिसमें खाने पीने के लिये कुछ सही सामान मिलता हो। अपना टिफिन मैं बैंक में ही चपरासी को थमा आया था, बैग में सींगदाने का एक पैक रखा हुआ था, (बिना घी-तेल की सहायता से भुनी हुई नमकीन मूंगफली जो गुजरात व मुंबई से चलते चलते सहारनपुर तक आ पहुंची है।), सो उससे ही काम चलाता रहा। ट्रेन के अंदर व खिड़की के बाहर ताक-झांक करने पर जो कुछ दिखाई दिया सो प्रस्तुत है।
खिड़की से बाहर दिखाई दे रहे दृश्यों में सबसे प्रमुख दृश्य ये नज़र आये कि सहारनपुर से दिल्ली के बीच रेलवे विभाग सैंकड़ों सब-वे बना रहा है ताकि लेवल-क्रासिंग का झंझट समाप्त हो जाये। बिना फाटक वाली क्रासिंग पर तो अनेकानेक दुर्घटनाएं हर वर्ष होती ही हैं परन्तु जहां फाटक हैं, वहां भी लोग आत्महत्या जैसे कुकर्म करने से बाज नहीं आते। अपना ट्रेक्टर ट्रॉली, कार, मोटर साइकिल लेकर आते हैं और आती हुई ट्रेन के सामने रेल ट्रैक पर खड़े हो जाते हैं कि आ सांड, मुझे मार!
DMU होने के कारण ट्रेन में बायो टॉयलेट तो दूर, सादे वाले टॉयलेट भी नहीं थे। ऐसे में जब शाहदरा स्टेशन पर ट्रेन आकर रुकी तो सोचा कि यहीं उतर कर पहले वाशरूम का उपयोग करूं और फिर यहीं से मैट्रो पकड़ ली जाये क्योंकि पुरानी दिल्ली जाकर भी मैट्रो ही पकड़नी है। शाहदरा मैट्रो स्टेशन दिलशाद गार्डन – रिठाला रेड लाइन मैट्रो रूट पर है और काश्मीरी गेट मैट्रो स्टेशन पर उतर कर बेसमैंट पर जाओ तो येलो लाइन मैट्रो मिल जाती है जो नई दिल्ली स्टेशन (अजमेरी गेट साइड) पर उतार देती है।
नई दिल्ली मैट्रो से बाहर आते आते 7 बज चुके थे और भूख से बुरा हाल था। बाहर आते ही एक रेस्टोरेंट दिखाई दिया तो एक बर्गर और कॉफी उदरस्थ करके नई दिल्ली स्टेशन के भीतर जाने के लिये एक्स रे मशीन की लाइन में जा लगा। नोटबंदी के कारण लोगों को बैंकों और एटीएम के आगे लम्बी-लम्बी लाइन लगाने की इतनी अच्छी तरह से आदत पड़ चुकी थी कि इस एक फर्लांग लम्बी लाइन में भी लोग सहज भाव से खड़े थे। प्लेटफार्म नं. 4 पर हमारी गाड़ी आयेगी, और मुझे अपने अन्य साथी किस कोच के आगे खड़े मिलेंगे, इस की सूचना मुझे मोबाइल पर मिल चुकी थी। मुझे स्टेशन पर जो साथी मिलने वाले थे, उनमें से एक भी ऐसा नहीं था, जिससे मेरा पूर्व परिचय हो, ऐसे में मैं कोच नं. 5 के संकेतक के नीचे जा खड़ा हुआ और अपनी एक सेल्फी खींच कर ग्रुप में पोस्ट कर दी। पांच – सात मिनट में ही बीनू कुकरेती, कमल कुमार सिंह, रोमेश शर्मा, नरेश सहगल और संजय कौशिक नामक पांच घुमक्कड़ सामने आ खड़े हुए। किसी ने तपाक से हाथ मिलाया, किसी ने चरण-स्पर्श कर डाले तो कोई जोर शोर से गले लग गया। एक दो मिनट में ही अपरिचय की दीवार ढह गयी और हम सब प्लेटफार्म पर फर्श पर ही बैठ गये और अपनी गाड़ी के आने की प्रतीक्षा करने लगे जो घंटा भर लेट हो चली थी। आने वाले दो दिनों के लिये हम सभी अत्यन्त उत्साहित थे। मेरे नाम की तो कोई बर्थ थी ही नहीं, पर बाकी सब की बर्थ कोच नं. 4 व 5 में थीं एक साथी ने अपना टिकट कैंसिल कराने के लिये संजय कौशिक को कहा था, सो उन्होंने बर्थ कैंसिल कराने के बजाय मुझे उस बर्थ पर सुलाने का निश्चय कर रखा था। अतः वह बर्थ मुझे मिल गयी।
ट्रेन नई दिल्ली में ही 1-1/2 घंटा लेट थी, अतः जब अन्ततः ट्रेन आई और हमने अपनी अपनी बर्थ संभाली, तब तक सोने का समय हो चुका था। फिर भी हम सब एक दूसरे का परिचय और गहराने के लिये जागते रहे और गप-शप करते रहे। संजय कौशिक और रूपेश शर्मा सब साथियों के लिये खाना लेकर आये हुए थे सो अपनी क्षुधा को पहली बार ढंग से शांत किया गया। उसके बाद मैं अन्य सहयात्रियों का खयाल करते हुए हा-हा, ही-ही, हू-हू में भाग न लेते हुए लंबी तान कर सो गया।
आ पहुंचे झांसी
सुबह आंख खुली तो पता चला कि आगरा से रितेश गुप्ता भी सपरिवार ट्रेन में आ गये थे और उनका भरपूर स्वागत करने के बाद ही बाकी सब सोये थे। सुबह 4.30 के बजाय लगभग 6.45 पर जब झांसी स्टेशन पर आकर लगी तो सूर्योदय हो रहा था। स्टेशन से बाहर निकल कर आये तो मोबाइल पर रांची, झारखंड से आरहे साथियों के मैसेज मिले कि उनकी ट्रेन भी झांसी आ चुकी है। प्रकाश यादव और उनका परिवार, हेमा सिंह और उनका परिवार, आर.डी. प्रजापति आदि भी कुछ ही मिनटों में हम से आ मिले। हर किसी का चेहरा खिला हुआ था और इन दो दिनों में खूब धमाचौकड़ी मचाई जायेगी, यह योजना बन रही थीं। सूरज मिश्रा, हरेन्द्र धर्रा हमसे भी पहले ओरछा पहुंच चुके थे।
मैं वर्ष 1980 से 1983 तक झांसी में कार्यरत था और उन दिनों एक बार टैम्पो में बैठ कर ओरछा भी घूमने फिरने गया था। 33 वर्ष बाद मैं पुनः झांसी की धरती पर खड़ा था, यह बात मुझे अतिरिक्त रूप से उत्साहित कर रही थी। मैने साथियों से पूछा कि सब आगये हैं तो ओरछा के लिये निकल पड़ें? रितेश ने बताया कि अभी मुकेश पाण्डेय आ रहे हैं जो ओरछा में ही पोस्टेड हैं और यहां हमारी सबकी ठहरने, खाने – पीने व घूमने की समस्त व्यवस्था उन्होंने ही अपने कंधे पर ली हुई है। हम ये बातें कर ही रहे थे कि मुकेश पाण्डेय भी आ गये और बड़ी गर्मजोशी से गले मिले। मुझे यह एहसास करके बड़ा विचित्र लग रहा था कि ये सभी लोग मेरा नाम तो जानते ही हैं, इनमें से कई ऐसे हैं जो चेहरा भी पहचान रहे हैं। ये सभी बड़े अपनेपन के साथ मुझसे मिल रहे हैं, कोई गले लग रहा है तो कोई चरण स्पर्श कर रहा है, जबकि मुझे उनके नाम और शहर भी पूछने पड़ रहे हैं।
मुकेश जी द्वारा की गई व्यवस्था के अनुरूप हम सब वाहनों में सवार हुए। मात्र 16-18 किमी की इस यात्रा में हमारे सारथी बने ग्रेटर नॉएडा से आये हुए रूपेश शर्मा जो ट्रेन में भी हमारे साथ ही थे। रितेश गुप्ता और उनके परिवार को भी हमारी वाली कार में ही जगह मिली। और हम चल पड़े ओरछा की ओर जहां घुमक्कड़ी का एक नया इतिहास लिखे जाने की तैयारी कर रहा था …
क्रमशः
अहा ! इस महामिलन के वे पल जो हम से अब तक पर्दानशीं थे , अब आहिस्ता आहिस्ता बे-पर्दा हो रहे है ।
कल तक सब आभासी थे, और आज सब अपने हो गए ।
बेहतरीन शुरुआत …
आदरणीय प्रणाम !
प्रिय मुकेश जी, इस पोस्ट पर आकर सबसे पहले कमेंट करने हेतु Early bird prize आपको जाता है। पर्दानशीं को बेपर्दा ना करदूं तो अकबर मेरा नाम नहीं ! हा-हा-हा !
इस मिलन को सफल बनाने में आपके द्वारा जो मेहनत की गयी, उसके लिये आप निश्चय ही साधुवाद के पात्र हैं। आपका सहज स्नेह यूं ही बना रहे, यही कामना है। सादर,
आदरणीय , प्राइज लेने की विधि क्या है ? ये किसी सम्मान समारोह में मिलेगा या कोरियर से भेजा जायेगा ? वैसे मैं आपके शुभ हाथों से ही इसे लेना पसंद करूँगा ।मेरे लिए आप किसी सेलिब्रिटी से कम थोड़े है । आपके स्नेह और सम्मान हेतु आभारी हूँ ।
प्राइज़ कैसे दिया जाना है, इस बारे में निर्णय लेने के लिये बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की एक बैठक आहूत की गयी है। जो भी निर्णय होगा, आपके संज्ञान में अवश्य लाया जायेगा। वैसे ज्यादा संभावना यही है कि ये पुरस्कार आपको सहारनपुर में ही दिये जाने का निर्णय लिया जाये। अतः एक और यात्रा हेतु तैयार रहें। 😉 😀
सर जी ,
हमेशा की तरह बेतरीन लिखा आपने । पोस्ट पढ़कर मजा आगया । अतीत में बिताए खूबसूरत पलों से एक एक शब्द को अपनी यादों से चुन चुन कर आपने इस लेख को ओरछा मिलन के लिये यादगार और ऐतिहासिक बना दिया ।
आप ओरछा आये और इसका जरिया मैं बना ये तो मेरे लिये खुश किस्मती की बात हुई । इस ओरछा मिलन के सभी पहलुओं को आपने और पांडेय जी के लेख के माध्यम से सबके सामने लाकर अवगत करा दिया है ।
यूँही कोई मिलन इतना सफल नही होता जब तक मिलने की चाह और तड़प न हो , जज्बा न हो । जय हो खूबसूरत लेख और चित्रों के लिये ।
धन्यवाद जी ।
घुमक्कड़ी दिल से ??
प्रिय रितेश, मैं आपका सदैव ऋणी रहूंगा कि आपके माध्यम से मुझे इतने सारे प्यारे प्यारे दोस्त मिले। सिर्फ वहां बिताये पलों को याद करके ही नहीं, अपितु ओरछा मिलन की जानकारी मिलने से लेकर आज तक आनन्द ही आनन्द में सराबोर हो रहा हूं। यह नशा आगे भी यूं भी बना रहे, यही लालसा है।
आप इस पोस्ट पर आये और इसे पसन्द किया, इसके लिये आपका हार्दिक आभार। आते रहें, प्रोत्साहित करते रहें, यही अनुरोध है।
आपके पूरे परिवार से मुझे बहुत स्नेह और मान – सम्मान मिला। उन सब को भी शुभाशीष दें !
Wah sir maja aa gaya ,aapki shabdo ki jadugar aisi hoti hai ki ant tak khoye rahte hai kahani me ,agla bhag bhi jald likh daliye
प्रिय संजय कुमार सिंह, आपका आदेश सर माथे, अगला भाग लेकर आने की मुझे भी बहुत जल्दी है क्योंकि आपसे मुलाकात तो ओरछा पहुंच कर ही हुई ना। 🙂 😉
चोखी रपट
प्रिय ललित जी, आपका आभार ।
बहुत सुंदर
धन्यवाद चाहर जी!
सादर सस्नेह,
Hi Sushant ji
.
आज कई दिनों के बाद आपके द्वारा लिखित कोई यात्रा संस्मरण पढ़ने का सौभाग्य मिला [fb पर राजनीतिक टिप्पणियाँ अपवाद में गिनी जाएंगी :)]
सच जानिए घुम्मकड़ डॉट कॉम की ही याद आ गई आपका आलेख पढ़ते हुए(जिसका जिक्र आपने भी किया है।)
शब्दों के तो आप जादूगर है ही, यह तो हम सब जानते ही हैं। अतः यह आलेख चौंका नही रहा, आपकी सिग्नेचर स्टाईल का प्रतिबिंब है।
आने वाला अंक और भी ज्यादा ह्यूमर शैली से परिपूर्ण हो, इसके लिए ढेर सारी अग्रिम शुभकामनायें ??
प्रिय पाहवा जी,
कुछ भी कहना कठिन हो रहा है मेरे लिये। बस, अपना स्नेह बनाए रखें। आपकी अपेक्षाओं पर खरा उतर सकूं, ये मेरा प्रयास रहेगा। आपको पढ़ने के लिये कहां जाना होता है?
सादर,
सुशान्त सर,क्या कहूँ शब्द ही नहीं मिल रहे।लेख में वही ताज़गी,अपने सफर की शुरुवात से ओरछा पहुँचने तक का जो विवरण आपने पेश किया,सब कुछ चलचित्र की भाँति आँखों के आगे घूम गया।आपसे मिलने की लालसा काफी समय से थी।जब ये पता चला आप भी हमारे साथ ही सफर में हो तो मन गदगद हो गया।बाकि सबसे तो मैं पहले भी मिल चुका था।ख़ुशी उनसे भी मिलने की थी पर आपसे पहली बार मिलना मेरे लिए किसी तोहफे से कम नहीं था।सब का आना जाना रामराजा के हाथ में था,उनकी कृपा सब पर बनी रहे।ओरछा के राजारामचंद्र की जय?????
प्रिय रूपेश,
एक मज़ेदार बात बताऊं? सहारनपुर में एक रूपेश शर्मा हैं जो आजकल दैनिक जागरण में कार्य करते हैं। जब भी मैं तुम्हारा कोई कमेंट फेसबुक पर देखता था तो सीधे उनका ही ध्यान आता था, पर फोटो देख कर लगता था कि ये तो कोई दूसरे रूपेश शर्मा हैं। रात को ट्रेन में जब हम मिले तो मेरी भी उत्सुकता का कोई अन्त नहीं था। तुमसे जो स्नेह और आदर मिला, पता नहीं मैं उसके लायक हूं भी या नहीं! पर अब ये अपनापन जीवन भर मुझे मिले, ऐसी प्रभु से कामना है। इस ओरछा यात्रा ने हम सब को ही बहुत कुछ दिया है जिसके लिये निश्चय ही रामराजा सरकार का हम सब को मिल रहा शुभाशीष ही मुख्य कारण रहा है।
सर,आप लायक नहीं ये कहकर ,स्नेह कम मत कीजिये।आपका हृदय से आदर करता था और हमेशा करता रहूँगा।ये तो मेरे खुशनसीबी है कि आप से साक्षात् परिचय हो पाया??????
बहुत ही रोमांचित करता है आपका यात्रा का एक एक पल का विवरण !
प्रिय श्री कपिल चौधरी, आप यहां इस ब्लॉग तक आये, इस पोस्ट को पढ़ा, सराहा और अपना कमेंट भी छोड़ा, यह सब देख कर मैं आह्लादित हूं और हृदय से आपका आभारी हूं । आशा है, अपना स्नेह इसी प्रकार बनाए रखेंगे। सादर,
बहुत अफसोस है कि मेरे पास आपके दर्शन का एक मौका था ।जिसे मैंने गवा दिया ,ओरछा न आकर ।
प्रिय कपिल चौधरी, ये तो मेरे साथ भी उतना ही सच है। आपसे मुलाकात होती तो और अच्छा लगता। वैसे मेरे लिये अधिकांश साथी नये ही थे। नये लोगों को पहचानने में, उनके नाम – काम – धाम याद रखने में कुछ तो समय लगता ही है। मुझे उम्मीद है कि हमें मुलाकात के और भी बहाने मिलते रहेंगे। शुभ कामनाओं सहित,
Aapse mil kar wakai bahut achhha laga…orchaa yatra ko jitni baar ppado utna kam hai….bahut achha likha hai
प्रिय प्रतीक, आपसे ओरछा में साथ – साथ रहते हुए भी ज्यादा बातें नहीं हो पायीं इसका मुझे अफसोस है। आप इस ब्लॉग पर आये और ये पोस्ट पढ़ी, यह देख कर बहुत अच्छा लगा। आप किस ब्लॉग पर लिखते हैं, कृपया बताइयेगा। स्नेह बनाये रखें। शुभ कामनाओं सहित,
वाह….सही में शब्दों के जादूगर हैं आप …आपके बहुआयामी व्यक्तित्व का ये पहलु भी उतना ही शानदार है ।आपसे मिलकर बहुत अच्छा लगा और ये आलेख पढ़ कर भी..?
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नशा. …. ये प्यार का नशा ! न न ! घुमक्कड़ी आ नशा ! है ही ऐसी चीज कि आदमी हर मुश्किल , हर परिस्थिति में निकलने की कोशिश करता है ! आखिर पहुँच गए झाँसी ! अच्छा लगा , लेकिन वो सहयात्री या यात्रीनि के चूड़ा का फोटो आपने कैसे ले लिया ? डांट नही पड़ी आपको ?
चूड़ा वाली सहयात्री का फोटो तो उनकी अनुमति लेकर ही लिया था और एक नहीं बल्कि छः – सात लिये थे। चूड़ी – कंगन आदि से संबंधित एक प्रोजेक्ट चल रहा है। उस सिलसिले में जहां कहीं परम्परागत चूड़ी वगैरा दिख जाती हैं तो अनुमति लेकर फोटो ले लेता हूं।
यही तो ख़ासियत है इस virtual world बिना मिले ही जाने पहचाने हो जाते है 🙂
मैं भी आपको और almost all members mentioned here को काफी अच्छी तरह पहचानता हूँ , खासकर जो लोग पहले ghumakkar.com पर लिखा करते थे.
सर जी मैं भी कभी पहुँच जाऊंगा सहारनपुर आप से मिलने 🙂
I distinctly remember comments from ‘Stone’ on my posts. I had always wanted to know who is writing such a beautiful comments but only today I learnt about you, about your blog, your poetry, your photography and your ‘Rules’ ! 😉 Thank you for visiting this blog and leaving a comment here. Please do remain in touch.
Ghumakkar.com has not only given me scores of great friendships with like-minded people but has re-kindled the desire to write. I can never repay that debt. All of my happiness comes from travelling and capturing my feelings on paper and on my camera’s memory card. Thank you Sandeep.