India Travel Tales

दिल्ली – उदयपुर : मेरी पहली हवाई यात्रा

सुनो जी! उदयपुर घूमने चलने का मूड है क्या?”

“कमाल है! भूत के मुंह से राम-राम!  आज तुम घूमने की बात कर रही हो! सब खैरियत तो है?”

“हवाई जहाज से चलेंगे!”

अब मुझे चिंता होने लगी।  श्रीमती जी के माथे पर हाथ रख कर देखा कि कहीं बुखार वगैरा तो नहीं है, पर माथा भी सामान्य लग रहा था ! 

“आखिर चक्कर क्या है?  आज तुम्हें क्या हो गया है? मुंगेरीलाल के ऐसे हसीन सपने क्यों दिखा रही हो?

“क्यों?  हवाई जहाज से जाने में क्या दिक्कत है अगर सिर्फ एक रुपये टिकट हो?”

“तुमने आज कहीं भांग-वांग तो नहीं पी ली है गलती से? तुम तो बिल्कुल प्रेक्टिकल जीवन जीने में यकीन रखती हो! फिर ऐसी बातें कैसे करने लगी हो?”

“अरे, आप भी बस!  असल में बड़ी दीदी का फोन आया था। वह कह रही हैं कि उदयपुर घूमने चलते हैं ’बाई एयर’!  उनके बेटे ने कहा होगा कि एयरलाइंस एक – एक रुपये के टिकट दे रही हैं। सिर्फ टैक्स देना होता है जो करीब 1200 बैठता है।  एक टिकट 1201 का पड़ता है!  ट्रेन के टिकट से भी सस्ता! आपको तो घूमने जाने में कोई दिक्कत है ही नहीं!  मैने तो हां कह दी है, मार्च एंड में चलेंगे अगर टिकट कंफर्म हो गये तो!”

“अरे, ये एयरलाइंस वाले तुम्हारी जीजी के समधी हैं क्या?  1 रुपये में दिल्ली से उदयपुर क्यों लेकर जायेंगे?  और फिर, तुम्हारी दीदी-जीजाजी के साथ घूमने जाना पड़ेगा?”

“क्यूं? उनमें क्या खराबी है? जब उनको आपके साथ जाने में कोई तकलीफ नहीं है तो आपको क्या तकलीफ है?  श्रीमती जी को रुष्ट हो गया देखकर मैने अपने माथे पर हाथ मारा !  अच्छा भला घूमने का प्रोग्राम बन रहा है, क्यों चौपट करे दे रहा हूं? 

“नहीं, ऐसी कोई खराबी भी नही है !”  चलो, ठीक है, चलेंगे !  पर सिर्फ उदयपुर नहीं, माउंट आबू भी!  बड़ी गज़ब जगह है, देख कर प्रसन्न हो जाओगी !”

“कुल पांच दिन का टूर रखेंगे !  अगर उसमें माउंट आबू भी शामिल हो सकता है तो ठीक है, आप जीजाजी से बात कर लेना।“

हमारी ये बातचीत वर्ष 2007 की जनवरी की है।  जब तीन दिन बाद मुझे पता चला कि गाज़ियाबाद स्थित हमारे रिश्तेदारों के माध्यम से हम चारों के आने-जाने के एयर – टिकट कंफर्म हो गये हैं तो मैंने सपने में ही हवाई यात्रा करनी चालू कर दी।  दरअसल, हम कुछ वर्ष पहले तक तो रेल में भी ए.सी. यात्रा को फालतू का खर्चा मान कर स्लीपर क्लास में खुशी खुशी यात्रा करते रहे हैं।  अतः हवाई जहाज से यात्रा करने की दिशा में हमने कभी कल्पना ही नहीं की।  बेटा भले ही इंग्लैंड के कई चक्कर लगा आया हो पर हम मियां-बीवी थोड़ा आलसी किस्म के हैं!  उसके बार-बार कहने के बावजूद हमने आज तक पासपोर्ट भी नहीं बनवाया है।  एक बार ऑनलाइन पासपोर्ट की अर्ज़ी दी थीं। उस आवेदन पत्र में एक कॉलम यह भी था कि साक्षात्कार के लिये गाज़ियाबाद स्थित पासपोर्ट ऑफिस में कब पधारेंगे।  हमने जो तिथि आवेदन पत्र में सूचित की थी उस दिन हम गये ही नहीं ! पर चलो, विदेश यात्रा न सही, स्वदेश में ही एयर ट्रेवल कर के देख लिया जाये।

28 मार्च की सुबह पांच बजे हमने अपनी कार में सामान लादा और गाज़ियाबाद के लिये निकल पड़े!  दिन में 2.30 बजे के आस-पास फ्लाइट का टाइम था जिसके लिये हमें दिल्ली एयरपोर्ट के देसी टर्मिनल पर दोपहर एक बजे तक पहुंच जाना चाहिये था। रास्ते भर हवाई किले बनाते हुए हम दोनों दस बजे शास्त्रीनगर, गाज़ियाबाद पहुंच गये।  जो – जो बातें फोन पर नहीं हो पाई थीं, वह सब तय कर ली गईं।  इतने दिनों में मैने भी उदयपुर और माउंट आबू की खाक इंटरनेट पर जम कर छान ली थी।  सारे होटलों और दर्शनीय स्थलों के नाम रट चुका था।  आमेट हवेली के बारे में बड़े अच्छे अच्छे रिव्यू पढ़े थे, फोटो भी देखे थे, अतः दिमाग में बस यही छाया हुआ था कि अगर जेब ने साथ दिया तो आमेट हवेली में जाकर ही टिकेंगे। 

अपनी कार गाज़ियाबाद में घर पर ही खड़ी कर दी गई। घर से एयरपोर्ट तक पहुंचाने के लिये श्रीमती जी के भानजे ने अपने ड्राइवर को गाड़ी सहित भेज दिया था जिसने हमें समय से एयरपोर्ट पहुंचा दिया।  हम दोनों के लिये एयरपोर्ट में प्रवेश का भी यह पहला अवसर था अतः रोमांच बहुत था।  एक – एक मिनट एक – एक घंटे जैसा अनुभव हो रहा था। टर्मिनल में प्रवेश करके अपने बैग – अटैची एयरपोर्ट अधिकारियों को सौंपे, तब जाकर बदले में हमें बोर्डिंग पास मिले!  अन्दर गये तो हॉल में खाली सीट देख कर हम चारों बैठ गये।  मुझे लगा कि अब समय आ गया है कि अपने कैमरे को बैग से बाहर निकाल लिया जाये।  दीदी ने प्रश्नवाचक निगाहें मेरी ओर उठाईं “अभी से कैमरा?” तो हमारी श्रीमती जी ने उनके कान में फुसफुसा कर कह दिया कि इनको कैमरे के लिये कभी कोई कमेंट मत करना वरना भैंस पानी में चली जायेगी!  पूरे टूर में ये मुंह फुलाये घूमते रहेंगे!”

नई दिल्ली एयरपोर्ट पर ज़िन्दगी की अपनी पहली फ़्लाइट का इंतज़ार ! फोटो में दीदी और भाईसाहब दिखाई दे रहे हैं।

अंततः वह क्षण भी आया जब उस प्रतीक्षालय की दीवारों पर लगे हुए इलेक्ट्रॉनिक डिस्प्ले बोर्ड पर हमारी फ्लाइट का ज़िक्र आया और सभी यात्रियों को बस में बैठने हेतु उद्‌घोषणा की गई।  पत्नी ने कहा कि बस की क्या जरूरत है, पैदल ही चलते हैं तो उसके जीजाजी ने कहा कि चिंता ना करै ! टिकट नहीं लगता।  मैं एयरपोर्ट की बस में बैठते ही कैमरा लेकर ठीक ऐसे ही एलर्ट हो गया जैसे बॉर्डर पर हमारे वीर जवान सन्नद्ध रहते हैं।  दो – तीन मिनट की उस यात्रा में वायुयान तक पहुंचने तक भी बीस-तीस फोटो खींच डालीं!

नई दिल्ली एयरपोर्ट के टर्मिनल से एयरलाइंस की बस में अपने हवाई जहाज तक जाते हुए भी मैं चित्र लेता रहा।
७००टर्मिनल से बस में अपने हवाई जहाज तक जाते हुए भी मैं चित्र लेता रहा।
नई दिल्ली एयरपोर्ट : रन वे की ओर जाने के लिये तैयार एक और जहाज !
नई दिल्ली एयरपोर्ट : रन वे की ओर जाने के लिये तैयार एक और जहाज !
नई दिल्ली  एयरपोर्ट :  जहाज के उड़ने से पहले उसके स्वास्थ्य की पूरी जांच की जाती है।
नई दिल्ली एयरपोर्ट : जहाज के उड़ने से पहले उसके स्वास्थ्य की पूरी जांच की जाती है।
और ये रहा हमारा वाला मिनी जहाज। मुझे लगा कि मैं इसमें खड़ा भी नहीं हो पाउंगा।

जब अपने वायुयान के आगे पहुंचे तो बड़ी निराशा हुई!  बहुत छोटा सा जहाज था वह भी सफेद पुता हुआ।  मुझे लगा कि मैं छः फुटा जवान इसमें कैसे खड़ा हो पाउंगा !  सिर झुका कर बैठना पड़ेगा!  एयर डैक्कन एयरलाइंस के इस विमान में, जिसका दिल्ली से उदयपुर तक का हमने सिर्फ 1201 रुपये किराया अदा किया था, हम अन्दर प्रविष्ट हुए तो ऐसा नहीं लगा कि सिर झुका कर चलना पड़ रहा है।  सिर्फ बाहर से ही ऐसा लग रहा था कि जहाज में घुस नहीं पाउंगा। खैर अन्दर पहुंच कर अपनी सीटें संभाल लीं। स्पेशल केबिन  मुझे खिड़की वाली सीट चाहिये थी सो किसी ने कोई आपत्ति दर्ज़ नहीं की।  अन्दर सब कुछ साफ-सुथरा था। एयरहोस्टेस भी बड़ी अच्छी सी थी। मैने उसकी ओर कैमरा ताना तो उसने आंखों के इशारे से मना किया।   यात्रा के दौरान सुरक्षा इंतज़ामों का परिचय देने की औपचारिकता का उसने एक मिनट से भी कम समय में निर्वहन कर दिया।  सच तो यह है कि कोई भी एयरलाइंस, यात्रा के शुभारंभ के समय दुर्घटना, एमरजेंसी, अग्नि शमन जैसे विषय पर बात करके यात्रियों को आतंकित नहीं करना चाहती हैं पर चूंकि emergency procedures  के बारे में यात्रियों को बताना कानूनन जरूरी है, अतः इसे मात्र एक औपचारिकता के रूप में फटाफट निबटा दिया जाता है।  यात्रियों को समझ कुछ भी नहीं आता कि किस बटन को दबाने से ऑक्सीज़न मास्क रिलीज़ होगा और उसे कैसे अपने नाक पर फिट करना है।  एमरजेंसी लैंडिंग की स्थिति में क्या-क्या करना है और कैसे – कैसे करना है।  अगर कभी दुर्घटना की स्थिति बनती है तो यात्रियों में हाहाकार मच जाता है, वह निस्सहाय, निरुपाय रहते हैं, कुछ समझ नहीं पाते कि क्या करें और क्या न करें!  मेरे विचार से इसका कोई न कोई मध्यमार्ग निकाला जाना चाहिये।  अस्तु !

लगता है पहली बार हवाई यात्रा करने वाले हम ही अकेले लोग नहीं थे।   ये महिला भी शूटिंग में लगी हुई थी।
लगता है पहली बार हवाई यात्रा करने वाले हम ही अकेले लोग नहीं थे। ये महिला भी शूटिंग में लगी हुई थी।
यात्री की सीट बेल्ट कसती हुए एयर होस्टेस
यात्री की सीट बेल्ट कसती हुए एयर होस्टेस

कुछ ही क्षणों में हमारे पायलट महोदय ने प्रवेश किया और बिना हमारा अभिनन्दन किये ही कॉकपिट में चले गये।  उनके पीछे – पीछे एयरहोस्टेस भी चली गई पर जल्दी ही वापस आ गई और हमें अपनी अपनी बैल्ट कसने के निर्देश दिये।  मैने अपनी पैंट की बैल्ट और कस ली तो श्रीमती जी ने कहा कि सीट की बैल्ट कसो, पैंट की नहीं ! अपनी ही नहीं, मेरी सीट की भी।  मैने एयरहोस्टेस को इशारा किया और कहा कि मेरी सीट की बैल्ट कस दे।  (सिर्फ 1201 रुपये दिये हैं तो उससे क्या? आखिर हैं तो हम वायुयान के यात्री ही !  एयरहोस्टेस पर इतना अधिकार तो बनता ही है!) अब मुझे भी समझ आ गया था कि सीट बैल्ट कैसे कसी जायेगी अतः पत्नी की सीट की भी बैल्ट मैने कस दी।   मुझे खिड़की में से अपने जहाज की पंखड़िया घूमती हुई दिखाई दीं, द्वार पहले ही बन्द किये जा चुके थे।  एयर स्ट्रिप पर निगाह पड़ी तो पुराना चुटकुला याद आया। “जीतो ने संता से अपनी पहली हवाई यात्रा के दौरान खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा कि बंता ठीक कहता था कि हवाई जहाज की खिड़की से झांक कर देखो तो जमीन पर चलते हुए लोग बिल्कुल चींटियों जैसे लगते हैं!  संता ने जीतो को झिड़का, “अरी बुद्धू !  ये चींटियां ही हैं, अभी जहाज उड़ा ही कहां है!” चलो खैर !

नई दिल्ली एयरपोर्ट : अभी जहाज उड़ा ही कहां है? 😀
लीजिये, जहाज के पंखे तो घूमने लगे हैं !   इंतज़ार की घड़ियां समाप्त !
लीजिये, जहाज के पंखे तो घूमने लगे हैं ! इंतज़ार की घड़ियां समाप्त !
नई दिल्ली के आकाश से दिखाई दे रहे भवन !   लग रहे हैं न बिल्कुल कार्डबोर्ड के मॉडल जैसे ?
नई दिल्ली के आकाश से दिखाई दे रहे भवन ! लग रहे हैं न बिल्कुल कार्डबोर्ड के मॉडल जैसे ?

जहाज ने रेंगना शुरु किया और काफी देर तक हवाई पट्टी पर ही रेंगता रहा और गति बढ़ती रही तो मुझे शक होने लगा कि कहीं ये सड़क मार्ग से ही तो उदयपुर तक लेकर नहीं जायेंगे? मुझे टिकट पर बारीक – बारीक अक्षरों में क्या – क्या लिखा हुआ है, यह ठीक से पढ़ लेना चाहिये था।   मैने अपने संदेह की पुष्टि के लिये पुनः एयरहोस्टेस को बुलाना चाहा तो पत्नी ने आंखें तरेरी! पर तभी मुझे लगा कि जहाज अब धरती छोड़ चुका है और तेजी से आकाश की ओर उठता जा रहा है।  दिल्ली के बड़े – बड़े बहुमंजिला मकान और नेशनल हाई वे अब गत्ते के मॉडल जैसे दिखाई देने लगे थे जो आर्किटेक्ट लोग अपने ऑफिस में सजा कर रखते हैं।  कुछ ही मिनट में ये मकान गायब हो गये और उसकी जगह खेत – खलिहान आ गये और फिर जल्दी ही उनकी जगह उजाड़ – बंजर धरती ने ले ली!  मुझे इस बात का सख्त अफसोस हो रहा था कि जहाज और ऊंचाई पर क्यों नहीं जा रहा है।  जिस ऊंचाई पर हम थे, वहां से धरती अभी भी ऐसी नज़र आ रही थी जैसी दस-बारह मंजिला भवन की छत से नज़र आती है।  मुझे लगा कि पायलट से पता करूं कि और ऊपर क्यों नहीं जा रहे पर दीदी ने कहा कि इतने कम पैसों के टिकट में इतनी ही ऊपर तक ले जाते हैं!

तभी उद्‌घोषणा हुई कि जयपुर में उतर रहे हैं और यहां पन्द्रह मिनट रुकेंगे पर बाहर जाना मना है। हद तो तब हो गई जब जयपुर में हमारे वायुयान के ए.सी. और लाइट्स भी बन्द कर दी गईं!  एयरहोस्टेस भी जो कुछ खाने पीने की चीज़े दे रही थी वह सब खरीदना ही था – फ्री में कुछ भी नहीं था।  बाद में, एयर डैक्कन के सी.ई.ओ. का एक साक्षात्कार पढ़ा जो हवाई जहाज में उपलब्ध एक मैगज़ीन में प्रकाशित हुआ था। उसमें उन्होंने अपनी एयरलाइन की भावना समझाई थी।  उनका कहना था कि अगर एयरलाइन टिकट का मूल्य बहुत कम करके निःशुल्क खान-पान की सुविधाएं हटा देती है तो यात्री इसे बहुत पसन्द करेंगे।  आखिर एक डेढ़ घंटे की यात्रा में खाना खाने की आवश्यकता किसे होती है? एयरलाइन को हवाई जहाज में खाना – नाश्ता – ड्रिंक्स आदि सर्व करना बहुत महंगा पड़ता है और इसलिये इसका भारी भरकम मूल्य और ढेर सारा मुनाफा टिकट में ही जोड़ दिया जाता है।  यदि एयरलाइंस “निःशुल्क” खान-पान सेवा बन्द कर दें तो यात्रियों को टिकट मूल्य में बहुत राहत दे सकते हैं।   बात तो पते की कही गई थी पर उस सी.ई.ओ. ने अपने साक्षात्कार के दौरान ये नहीं बताया था कि रास्ते में पन्द्रह मिनट के लिये वायुयान जयपुर एयरपोर्ट पर खड़ा करें तो ए.सी. और लाइट ऑफ करके भी पैसे बचाये जा सकते हैं।

जयपुर एयरपोर्ट पर पन्द्रह मिनट का हाल्ट !  एयरलाइंस के कर्मचारी जहाज के बाहर शायद ’उदयपुर, उदयपुर! आवाज़ लगाते हुए यात्रियों को आमंत्रित कर रहे हैं !  ;-)
जयपुर एयरपोर्ट पर पन्द्रह मिनट का हाल्ट ! एयरलाइंस के कर्मचारी जहाज के बाहर शायद ’उदयपुर, उदयपुर! आवाज़ लगाते हुए यात्रियों को आमंत्रित कर रहे हैं ! 😉
निर्विकार भाव से जहाज उड़ने की प्रतीक्षा में हमारी श्रीमती जी !
निर्विकार भाव से जहाज उड़ने की प्रतीक्षा में हमारी श्रीमती जी !

जयपुर से आगे बढ़े तो लगभग आधा घंटे में हम उदयपुर एयरपोर्ट पर जा पहुंचे!  बाहर निकले तो देखा कि वहां कोई बस नहीं थी जो हमें टर्मिनल तक लेकर जाये।  छोटे से एयरपोर्ट पर, जिस पर एक ही हवाई पट्टी नज़र आ रही थी, हमारा वायुयान टर्मिनल के लगभग सामने ही आकर रुका था तो बस का करना भी क्या था?  हम लोग उतर कर टर्मिनल में गये, अपना सामान कहां मिलेगा इसका पता किया।  conveyor belt पर सबके अटैची – बैग टर्मिनल के किसी कमरे में से निकल कर आ रहे थे।  जब हमारे वाले अटैची-बैग बाहर निकले तो ट्रॉली पर लाद कर बाहर आये।  टैक्सियों से मोल भाव शुरु किया और अन्ततः जब देखा कि सब एक ही रेट बोल रहे हैं तो लगा कि मोलभाव करना अनावश्यक ही है।  हमने अब सिर्फ यह देखना था कि कौन सी टैक्सी अच्छी है, साफ – सुथरी और नयी लग रही है, कौन सा वाहन चालक बीड़ी – सिगरेट – पान – बीड़ी से दूर है।  दो-एक बार मुझे ऐसे टैक्सी चालक टकराये हैं जिन्होंने सहारनपुर से दिल्ली के बीच में लगभग 250 बार अपनी साइड का दरवाज़ा खोल कर पीक थूकी होगी।  ऐसे ड्राइवरों को तो कार निर्माता कंपनी से खास तौर पर कह कर हैवी ड्यूटी दरवाज़ा लगवाना पड़ता होगा।  जब मुंह में पान या गुटका भरा हुआ हो तो ऐसे आदमी की बातचीत समझने के लिये भी विशेष प्रयास करना पड़ता है।

क्रमशः

 

2 thoughts on “दिल्ली – उदयपुर : मेरी पहली हवाई यात्रा

  1. Rakesh Kumar Kataria

    सच में पहली बार हवाई जहाज से यात्रा करने वालों के मन में अलग प्रकार की अनुभूति होने लगती है
    लेकिन फिर उसके बाद सामान्य प्रक्रिया ही बन जाती है
    लेकिन यह आश्चर्य की बात है कि आप जैसा पर्यटक ने उदयपुर की यात्रा 2007 में की है।
    खैर लिखने के तो आप गुरुवर हो ही
    आपकी लेखनी को प्रणाम

    1. Sushant K Singhal Post author

      प्रिय राकेश जी, दर असल मैं मध्यमवर्गीय परिवार से हूं और रेलगाड़ी में स्लीपर क्लास में भी खुश रहता हूं, ए सी की जरूरत अनुभव नहीं होती। स्लीपर क्लास में अगर खिड़की वाली सीट मिल जाये तो मेरा कैमरा भी प्रसन्न रहता है। हवाई यात्राएं तो अब कुछ ही वर्षों से होने लगी हैं। कुछ महीने पहले तक तो हम सहारनपुर रहते थे और हवाई यात्रा करने के लिये सहारनपुर से दिल्ली एयरपोर्ट तक आना पड़ता था तो एक दिन तो हमारा सहारनपुर – दिल्ली के बीच में आने – जाने में ही लग जाता था। ऐसे में हवाई यात्रा का कोई विशेष आकर्षण नहीं था।
      कृपया स्नेह भाव बनाये रखें। आपका इस ब्लॉग पर नियमित आना मेरे लिये बहुत सुखद है।

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