प्रिय मित्रों,
हमारी महाराष्ट्र की पहले दिन की यात्रा 21 जनवरी 2020 की सुबह औरंगाबाद से आरंभ हुई थी जब हम सिकंदराबाद से 11 घंटे की रेल यात्रा करके औरंगाबाद के होटल ग्लोबल इन पहुंचे। इसके तुरन्त बाद हम वेरुल पहुंचे जहां हमने घृश्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और खुल्दाबाद में भद्र मारुति मंदिर के दर्शन किये। देवगिरि किला (जिसे दौलताबाद फोर्ट भी कहा जाता है) देखने का अर्थ था तेज धूप में 300-400 सीढ़ियां चढ़ कर पहाड़ी पर पहुंचना जिसके लिये हमारे साथी तैयार नही हुए। अतः हम किले पर न जाकर बीबी के मकबरे को देखने चले गये। वहां से निकल कर अब एक मुख्य दर्शनीय स्थल – पनचक्की जा रहे हैं, जिसके बारे में हमारे ड्राइवर – कम – गाइड ने बताया था।
औरंगाबाद की ऐतिहासिक पनचक्की
पनचक्की, जैसा कि हम सभी जानते हैं, पानी के प्रवाह के सहारे घूमने वाली चक्की है जिसमें लोग गेहूं वगैरा पीस कर आटा बनाते हैं। चक्की के निचले पाट को घुमाने के लिये एक शाफ़्ट का ऊपर का सिरा चक्की के एक पाट से, और दूसरा जलधारा में डूबे हुए एक पंखे से जोड़ दिया जाता है। जब तीव्र गति से बहता हुआ पानी पंखे से टकराता है तो पंखा घूमता है। ’मरता क्या न करता, पंखा घूमता है तो शाफ़्ट से जुड़ा हुआ चक्की का पाट भी मजबूरी वश घूमता है। 😉
नदी या झरना चूंकि दिन-रात बहते रहते हैं तो स्वाभाविक रूप से पंखा और चक्की का पाट भी दिन – रात घूमते ही रहेंगे भले ही अनाज पीसना हो या न पीसना हो! इसका हल ये है कि नदी की वह धारा जो पंखे की ओर आ रही है, उसे कुछ लकड़ी या लोहे का फट्टा अड़ा कर रोक दिया जाये और जलधारा दूसरी ओर जाती रहे। जब चक्की चलानी हो तो फट्टा ऊपर खींच लो। जलधारा इधर से बहने लगेगी। सो सिंपल !
पहाड़ी गांवों में मैने अक्सर ऐसी पनचक्कियां देखी हैं जिनमें गांव वासी अपना – अपना आटा पीस कर घर ले जाते हैं। अर्थात् पनचक्की पूरे गांव की सम्पत्ति होती है जिस को इस्तेमाल करने का हर किसी का हक है।
जब हम मानव अपने अनुभव से यह सीख गये कि जल के प्रवाह से पंखा आदि घुमाये जा सकते हैं तो हमने पंखे को टरबाइन से जोड़ कर जल-विद्युत परियोजनाएं भी आरंभ कर दीं। देश – विदेश में जितनी भी जल – विद्युत परियोजनाएं (hydro-electric power generation plants) चल रही हैं, उन सब में यही सिद्धान्त काम में लाया जा रहा है। बड़ी बड़ी नदियों पर भारी भरकम बांध बनाये जाते हैं, जल के प्रवाह की दिशा बदलते हुए उसे power generation plant के नीचे सुरंग से निकाला जाता है। प्लांट में बड़ी – बड़ी टरबाइन लगी होती हैं। जल के प्रवाह की अतुलनीय शक्ति से टरबाइन घूमती हैं और बिजली बनाई जाती है। यह बिजली हमें टी.वी. देखने के काम आती है, मोबाइल चार्ज करने के काम आती है । वैसे बिजली के कुछ और उपयोग भी हैं जैसे फैक्ट्रियों में मौजूद मशीनों व यंत्रों को चलाना, घरों व ऑफिस में बल्ब, ट्यूब, ए सी व कंप्यूटर चलाना, ट्रेन व मैट्रो रेल चलाना आदि। 😀
अब आपके मन में सवाल ये कुलबुला रहा होगा कि पनचक्की में ऐसा भला क्या हो सकता है कि उसे पर्यटन केन्द्र मान लिया जाये और उसको देखने के लिये टिकट भी लगा दिया जाये? आखिर, पनचक्की तो पहाड़ों में हर गांव में होती है जहां भी पानी की धारा उपलब्ध हो! तो दोस्तों, औरंगाबाद में जो पनचक्की नामक पर्यटन स्थल है, उसमें गरीब लोग आटा जरूर पीसते हैं और यह काम वह पिछले ढाई सौ साल से करते चले आ रहे हैं। परन्तु, इस की सबसे परम विशिष्ट विशेषता ये है कि इस चक्की को चलाने के लिये पानी की व्यवस्था उस जमाने में कई किमी दूर से एक नहर बना कर की गयी थी।
दूसरी विशेषता ये है कि चक्की को घुमाने के बाद नहर का पानी साइफ़न के सिद्धान्त का उपयोग करते हुए मिट्टी के बने पाइप से 30 फीट ऊपर ले जाया जाता है, जहां से वह पानी एक सरोवर में गिरता है। ये हुई ना कुछ बात! निष्कर्ष ये निकला कि उस जमाने में भी लोग विज्ञान के सिद्धान्तों को भली प्रकार समझते थे और उनका अपने समाज के हित में सदुपयोग भी करते थे। सुना है कि रूस के एक हज़रत बाबा शाह मुसाफ़िर थे जो आपकी तरह बहुत बड़े वाले घुमक्कड़ थे, वह रूस से हिन्दुस्तान में औरंगाबाद आये और यहीं अपना डेरा जमा लिया।
चलिये ज्ञान की बातें तो बहुत हो गयीं, अब आप इस पनचक्की के, तालाब के और फ़व्वारे के कुछ चित्र देख लीजिये। इनको देखने का कोई टिकट नहीं है।
पनचक्की देख कर और आसपास कुछ फोटो खींच कर जब हम प्रसन्नतापूर्वक वैन में पहुंचे तो ड्राइवर महोदय को मैने कहा कि, बस! बहुत हो गया, अब मुझे चश्मा खरीदना है क्योंकि मैं कुछ भी नहीं पढ़ पा रहा हूं। इसलिये बाज़ार चलो!
औरंगाबाद का बाज़ार और स्पेशल पानी पताशे
पनचक्की से थोड़ा आगे चलते ही एक बहुत बड़ा बाज़ार था जहां पर हमारे ड्राइवर ने हम सब को उतार दिया और कहा कि आप आराम से दो – एक घंटे यहां घूमें – फिरें, खायें – पियें ! जब चलना हो तो फोन घनघना दीजियेगा। मैं आस – पास ही रहूंगा और तुरन्त आ जाऊंगा।
जैसी की आप कल्पना कर ही सकते हैं, बाज़ार में आते ही हमारे महिला वर्ग ने एक साड़ी की दुकान पर धावा बोल दिया। मुझे अपने लिये चश्मा खरीदना था। हमारे अन्य साथी भी इधर उधर विंडो शॉपिंग में लग गये थे। जब तक महिलाएं अपने मतलब का सामान खरीद कर साड़ी की दुकान से बाहर आईं, मैने एक पानी पूरी / पानी पताशे / फुचका (और जो जो भी उसे कहते होंगे) की दुकान खोज ली और हम सब उस दुकान पर पानी पूरी खाने के लिये डट गये। 9 बर्तनों में 9 अलग – अलग फ़्लेवर का पानी था और हर बन्दे को कम से कम 9 पताशे तो खाने ही थे। मैं तो चार पताशे खाते – खाते ही मिर्च के कारण ’टें’ बोल गया पर हमारे साथी लोग – ’वीर तुम बढ़ो चलो, धीर तुम बढ़े चलो’ वाली भावना के साथ पताशे खाते चले गये! मुझे पानी पताशे से भी ज्यादा मज़ा उस दुकानदार युवक के पताशे खिलाने के अंदाज़ को देख – देख कर आ रहा था। उसके पास शायद 50 ml वाला नपना था जिसकी तली में उसने छेद कर रखा था। स्वाभाविक रूप से जब वह नपना पानी में डुबो कर निकालता था तो उस नपने में से पानी वापिस बरनी में गिरने लगता था। पर वह अपने हाथ को लहराते हुए पूरी लयात्मकता के साथ नपने से गिर रहे पानी से पहले पताशा भरता था, हमारे दोने में रखता था और फिर इसी प्रकार अगला पताशा उठाता था।
पानी पताशे खाकर हम बाज़ार में आगे बढ़े। एक दुकान पर एक बोर्ड लगा हुआ देखा जिस पर तिलक पथ, गुलमंडी बाज़ार लिखा हुआ था। ये औरंगाबाद का बहुत पुराना व परम्परागत थोक व फुटकर बाज़ार है। कुछ दूर आगे, पानी पताशे की एक और दुकान सड़क पर ही थी। तीन लड़कियां बड़े मजे ले लेकर पानी पताशे खाये चली जा रही थीं। जब वे लड़कियां तृप्त होकर अपनी स्कूटी लेकर बिना हेल्मेट लगाये हुए वहां से चली गयीं तो हमारे साले साहब बोले, आओ जी, इसका भी पानी जांच और परख लें। मैं तो पहले वाली दुकान के चार पताशे खा कर ही गश खा गया था और अगली सुबह मेरा क्या होगा, इसी चिन्ता में डूबा हुआ था। सो मैं तो एक पताशा खा कर हट गया और अपने हिस्से के बाकी पताशे निपटाने की जिम्मेदारी अपनी अर्धांगिनी को सौंप दी। आखिर, गृहस्थी की गाड़ी के दो पहिये इसीलिये तो होते हैं! एक पहिये में पंक्चर हो जाये तो दूसरा चलता रहे! 🙂
वहां से आगे बढ़े तो बारी थी – मसाले डोसे की! दुकान पर जो रेट लिखे हुए थे, वह अविश्वसनीय थे। मुझे लग रहा था कि ये सिर्फ डोसा बनते हुए देखने का चार्ज होगा! ऐसा भी दुनिया में कहीं होता है कि मसाला डोसा 10/- रुपये का और बटर वाला स्पेशल डोसा 30/- का मिले!!! हमारे गुड़गांव में तो पानी पताशे ही 30/- की एक प्लेट मिलते हैं!! खैर, हमने डोसे का आर्डर किया और हर किसी ने छोटू से सांभर की कटोरी में तीन – तीन बार सांभर भरवाया। महिलाओं ने नारियल की चटनी भी बार – बार मांगी। 90 रुपये में 9 डोसे हजम करके, मूछों को ताव देते हुए हम आगे बढ़े ही थे कि एक कुल्फ़ी वाले पर मेरी नज़र अटक कर रह गयी। मिर्च जो मुझे सताये चली जा रही थी सो, फ़टाफट उसकी 12 कुल्फ़ी बिक गयीं! (तीन लोगों ने 2-2 कुल्फ़ी खाई जिनमें yours truly भी एक था!)
इतना सब करने के बाद ड्राइवर महोदय को फोन लगाया गया और हम सब अपने होटल में जा पहुंचे। एक ही कमरे में सारे लोग हा-हा, ही-ही, हू-हू करने बैठे और पानी – पताशे, कुल्फ़ी और डोसे की चर्चा चलती रही। महिलाओं ने अपनी अपनी साड़ियों की प्रदर्शनी लगाई जो वह खरीद कर लाई थीं। ’ये साड़ी बहू के लिये, ये वाली बेटी के लिये, ये सूट अपने लिये वगैरा वगैरा! सुबह जल्दी से तैयार होकर हम लोग पहले एलोरा जायेंगे, फिर शनि शिंगणापुर होते हुए शिरडी धाम पहुंचेंगे यह हमारा अगले दिन का कार्यक्रम था। सुबह होटल से जितनी जल्दी नाश्ता करके निकल सकें, उतना अच्छा रहेगा – यह ताकीद करके हम सब फटाफट अपने अपने कमरे में आ गये। मैने अपनी फोटो iPAD में transfer कीं। आज औरंगाबाद के बाज़ार से 64 GB का एक मैमोरी कार्ड भी खरीद लिया था सो कैमरे के कार्ड को खाली करने की कोई जल्दी नहीं थी। बस, कैमरा और फोन चार्जिंग पर लगाये और सो गया।
22 जनवरी 2020 : एलोरा दर्शन
मित्रों, जैसा कि मैने आपको पहले भी बताया था, एलोरा की गुफाएं मंगलवार को पर्यटकों के लिये बन्द रहती हैं। कल जब हम घृष्णेश्वर मंदिर गये तो वहां से मात्र 1 किमी दूर होने के बावजूद एलोरा की गुफाएं नहीं देख पाये! भले ही हमें 30 किमी दूर दोबारा ही क्यों न आना पड़े पर हम UNESCO World Heritage Site के रूप में वर्गीकृत इन गुफाओं को देखे बिना तो नहीं जाने वाले थे। अतः आज सुबह जब हम होटल से नाश्ता करके और चेक आउट करके निकले तो सीधे वेरुळ का रुख किया। वेरुळ बोले तो वह गांव जहां पर घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग और एलोरा की गुफ़ाएं स्थित हैं।
मैं हमेशा से यही मानता चला आया था कि अजन्ता – एलोरा या तो एक ही पर्यटन स्थल का नाम है, या फिर दोनों अगल – बगल में ही होंगे। मेरी ये ’गलतफैमिली’ औरंगाबाद आकर दूर हुई जब पता चला कि अजन्ता और एलोरा के बीच में 100 किमी की दूरी है। औरंगाबाद से एलोरा गुफाओं की दूरी 30 किमी है जबकि अजन्ता 130 किमी दूर है। मैने अपने साथियों को इस बात के लिये तो मना लिया था कि हम एलोरा की गुफाएं अवश्य देखेंगे भले ही दोबारा वेरुळ क्यों न जाना पड़े पर अजन्ता जाने का समय हम नहीं निकाल पाये। अस्तु!
एलोरा की गुफ़ाओं के बारे में थोड़ी सी जानकारी
एलोरा विश्व में गुफ़ाओं का सबसे विशाल परिसर माना जाता है और 1000 से 1400 वर्ष पुराना आंका गया है। इस परिसर को तीन मुख्य भागों में बांट कर देखा जा सकता है – हिन्दू मंदिर, बौद्ध मठ और जैन मंदिर! खास तौर पर हिन्दू मंदिर (शिव मंदिर) की विशालता और भव्यता आश्चर्य चकित कर देने वाली है। अब से हज़ारों वर्ष पहले एक ही चट्टान को काट कर उसमें रथ की आकृति का अत्यन्त विशाल मंदिर बनाने वाले उन अनाम कलाकारों के बारे में सोच – सोच कर ही दिमाग़ का दही बनने लगता है! हज़ारों वर्ष पहले बनाई गयी मूर्तियों की कलाकारी देखते ही बनती है, मानों इस कलाकारों ने पत्थरों पर कविता लिख डाली हो।
पर कहते हैं ना, जहां गुलाब हो, वहां कांटे भी होंगे ही! यहां बहुत सारी मूर्तियां क्षत-विक्षत हैं, खास तौर पर नारियों की मूर्तियां! ऐसा लगता है कि कुछ असभ्य, अनपढ़, जंगली जानवरों जैसे विदेशी आक्रान्ताओं ने अपनी विक्षिप्तता और क्रूर मानसिकता का परिचय इन मूर्तियों के सिर धड़ से अलग करके, उनके स्तन काट कर दिया है। माना जाता है कि नारी देह का ऐसा खुला चित्रण उनको अपने मजहब के विरुद्ध लगा और इसलिये उन्होंने हथौड़े मार – मार कर इन बुतों को तोड़ डाला! फिर भी अनेकानेक मूर्तियां शायद उनकी पहुंच से ऊपर रहीं और बच गयीं!
अब इन गुफ़ाओं को भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा अपने संरक्षण में लिया जा चुका है और कुछ ऐसे पर्यटकों के अलावा, जो मूर्तियों और दीवारों पर चॉक या कोयले से अपना और अपनी महबूबा का नाम लिखने में ही अपने जीवन का सार अनुभव करते हैं, इन गुफ़ाओं को क्षति पहुंचाने वाले लोग अब इस दुनियां में शायद नहीं हैं। भगवान Banti loves Babli छाप इन युवाओं को भी अपने पास बुला लें तो ही बेहतर ! ऐसे लोग इस धरती पर बोझ से अधिक कुछ नहीं हैं।
खैर, एलोरा परिसर में वैष्णव, शैव, बौद्ध, जैन देवी – देवताओं का मूर्त रूप में चित्रण करने वाली लगभग 100 गुफ़ाएं बताई जाती हैं और उन सब को देखने के लिये कई सप्ताह का समय चाहिये। इन 100 गुफ़ाओं में से अधिकांश गुफ़ाएं पर्यटकों को देखने के लिये उपलब्ध नहीं हैं।
प्रवेश द्वार से जब हम गुफ़ाओं के नज़दीक पहुंचते हैं तो ठीक सामने हिन्दू गुफ़ाओं का समूह है और आप धरती पर क्रमांक 13 से 29 लिखा हुआ देख सकते हैं। जैन गुफाओं को देखने के लिये इसी परिसर में एक बस उपलब्ध कराई जाती है (इस बस में बैठने के लिये टिकट लेना पड़ा !) वह बस हमें लगभग 1 या डेढ़ किमी दूर बाईं दिशा में ले जाती है और 10/- टिकट लेती है आने जाने का। यहां पर गुफ़ा क्रमांक 30 से 34 देखी जा सकती हैं। हम लोगों के पास जितना समय था, उसमें हम हिन्दू (शैव व वैश्णव) गुफ़ाओं और जैन गुफ़ाओं को देख पाये। बौद्ध गुफाएं ( गुफ़ा क्रमांक 1 से 12 तक) देखने के लिये सबसे दाईं ओर वाली सड़क पर जाना होता है। थोड़ी दूर चल कर हम वापिस लौट आये क्योंकि थकने लगे थे और समय की कमी भी थी।
ये बात तो माननी ही पड़ेगी कि एक ही परिसर में जैन, बौद्ध, शैव, वैष्णव मंदिरों और मूर्तियों की उपस्थिति आज से 1000-1500 वर्ष पहले की सामाजिक व धार्मिक समरसता को भली प्रकार इंगित करती है और बताती है कि भारत इसलिये सेक्युलर नहीं है क्योंकि 1975 में इमरजेंसी के दौरान इंदिरा गांधी ने संविधान में संशोधन करके उसकी प्रस्तावना में ’सेक्युलर’ शब्द जोड़ दिया था! भारत सेक्युलर इसलिये है क्योंकि भारत की बहुसंख्य जनता हिन्दू दर्शन और जीवन पद्धति का अनुकरण करती है, जो मूलतः सर्वधर्म समभाव में विश्वास रखती है। जब तक भारत की बहुसंख्य जनता हिन्दू दर्शन में विश्वास करती रहेगी, भारत सेक्युलर रहेगा।
ये सारी की सारी गुफ़ाएं जिस काल खंड में बनाई गयीं उस समय देश के इस भाग में हिन्दू शासक राज्य करते थे और उनको अन्य मतावलंबियों द्वारा अपने मठ और मंदिर बनाने में कहीं कोई आपत्ति नहीं थी। यही हिन्दू जीवन दर्शन की सबसे बड़ी विशेषता (और सबसे बड़ी कमज़ोरी भी) है।
अब आप थोड़े से चित्र भी देख लीजिये जो मैं एलोरा से खींच कर लाया हूं।
मित्रों, अब हम यहां से शनि शिंगणापुर से होते हुए शिरडी के साईं बाबा धाम की ओर चलेंगे। अब तक की इस यात्रा में मेरा साथ देने के लिये मैं आप का हृदय से आभारी हूं। कल फिर मिलते हैं, बाय – बाय ! टाटा !