हमारे परिवार में आज तक जब भी कभी जयपुर घूमने जाने का कार्यक्रम बना, किसी न किसी कारणवश वह रद्द होता रहा है, अतः जयपुर भ्रमण हमारी स्थाई ’विश लिस्ट’ में ही रहा है। ऐसे में जब एक लेखक-फोटोग्राफर मित्र ने जनवरी प्रथम सप्ताह में आह्वान किया कि ’चलो जयपुर’ तो मैने भी कह दिया, ’जो हुकुम, मेरे आका!” अब प्रश्न उठा कि किन तिथियों में जयपुर जाना ठीक रहेगा तो सोच विचार कर यह तय हुआ कि 26 फरवरी की रात्रि का ट्रेन से जयपुर जाने का, और 29 फरवरी की रात्रि में जयपुर से वापसी का आरक्षण कराया जाये। 19610 हरिद्वार अजमेर एक्सप्रेस सहारनपुर के टपरी स्टेशन पर हमें लेने के लिये 9.40 पर आयेगी और शामली, बड़ौत, शाहदरा, दिल्ली जंक्शन, रिवाड़ी, अलवर, बांदीकुई, दौसा, गांधीनगर (जयपुर) होते हुए सुबह 7 बजे जयपुर जंक्शन स्टेशन पर उतार देगी। वापसी भी जयपुर से रात्रि 11 बजे होने के कारण हमें पूरे तीन दिन जयपुर भ्रमण हेतु मिल जायेंगे। 27 व 28 फरवरी बैंक का साप्ताहिक अवकाश है ही अतः 29 फरवरी की एक छुट्टी लेकर आराम से तीन दिन के भ्रमण का कार्यक्रम बनाया जा सकता है। जिन पाठकों को जानकारी नहीं है उनके लाभ के लिये बताना उचित रहेगा कि देहरादून से आकर दिल्ली की ओर जाने वाली कुछ ट्रेन सहारनपुर जंक्शन पर आती हैं और कुछ लूप लाइन का उपयोग करते हुए सहारनपुर के एक छोटे से स्टेशन टपरी से होती हुई निकल जाती हैं। अतः सहारनपुर जंक्शन तक नहीं आतीं !
जब फरवरी में जाट आरक्षण के सिलसिले में हिंसक आन्दोलन शुरु हुआ और हरियाणा से गुज़रने वाली लगभग सारी ट्रेन धड़ाधड़ कैंसिल होने लगीं तो लगा कि लो जी, इस बार का जयपुर भ्रमण भी रद्द ही करना पड़ेगा। हर रोज़ अखबार बांचते रहे, रद्द होने वाली ट्रेनों की लिस्ट में 19610 भी तो शामिल नहीं हो गयी है, यह देखते रहे। पर धीरे-धीरे मामला शांत हो गया और लगा कि यात्रा पर कोई ग्रहण नहीं लगने जा रहा है। संयोग से हमने ऐसी ट्रेन चुनी थी जो कब आधी रात में चुपचाप दिल्ली से हरियाणा के रिवाड़ी से होते हुए राजस्थान में प्रवेश कर जाती है, इस बात की खबर हरियाणा वालों को लगती ही नहीं। अतः 25 फरवरी को जब हमारे मित्र अग्रवाल साहब का फोन आया कि प्रोग्राम पक्का है और अगले दिन यानि 26 फरवरी को रात्रि 9 बजे टपरी स्टेशन पर मिलेंगे तो मैने भी अपना सूटकेस और कैमरे का बैग तैयार कर लिया और नियत समय पर ई-रिक्शा का दामन थाम कर सहारनपुर के टपरी स्टेशन पर जा पहुंचा। पांच-सात मिनट में ही अग्रवाल साहब भी आगये।
हां, इससे पहले हमने एक काम और किया था ! यूथ हॉस्टल एसोसियेशन ऑफ इंडिया के सदस्य होने के नाते हमने जयपुर में सारंग पैलेस होटल में बात कर ली थी जिसका नाम व फोन नंबर मुझे एसोसियेशन की वेबसाइट पर मिले थे।
रात भर ट्रेन के एसी 3 टीयर कंपार्टमैंट में भरपूर नींद लेकर, सुबह ऑटो पकड़ कर हम होटल सारंग पैलेस पहुंचे और कमरे आदि देखे तो नापसंद आने वाली कोई बात नज़र नहीं आई। स्टेशन से होटल तक पहुंचने की जिम्मेदारी ऑटो वाले ने ले जरूर ली थी पर उस बन्दे को रास्ता मालूम नहीं था। ऐसे में किसी नये शहर में पहुंचने से पहले गूगल मैप का अध्ययन करने की मेरी आदत बहुत काम आई। मैने जयपुर में जीवन में पहली बार ही कदम रखा था, पर ऑटो वाले को पूर्ण विश्वास के साथ रास्ता बताते हुए होटल तक ले आया और रास्ते में एक बार भी अपने मोबाइल का जी.पी.एस. चालू नहीं करना पड़ा। अग्रवाल साहब ने इस बात के लिये मेरी पीठ भी ठोकी !
नहा-धोकर जब हम लिफ्ट पकड़ कर नीचे आये तो ध्यान दिया कि रिसेप्शन के बगल में ही रेस्टोरेंट भी है, अतः नाश्ते के लिये उसी में चले गये। पराठें, टोस्ट, कॉफी इत्यादि वैसे तो ठीक थे पर उनका मूल्य आवश्यकता से अधिक अनुभव हुआ। बाहर आकर हमने ये निश्चय किया कि खाने-पीने का प्रबन्ध बाहर ही देखा जायेगा। प्रातः 10 बजे से 2 बजे तक का समय एक सरकारी अधिकारी से भेंट हेतु प्रतीक्षा करने में खर्च हो गया। मुझे समय की यह बरबादी बहुत बुरी लग रही थी, पर मेरे सहयात्री मित्र को उन सज्जन से मिलना आवश्यक लग रहा था, अतः हम वहीं लॉन में टहलते रहे, गिलहरियों की, कबूतरों की फोटो खींचते रहे। वांछित व्यक्ति से भेंट हो जाने के पश्चात् लगा कि अब सबसे पहले खाना खाया जाये। सिंधी कैंप मैट्रो स्टेशन बाज़ार बिल्कुल नज़दीक ही था, अतः ऑटो पकड़ कर वहीं चले गये। लंच के बाद जब क्षुधापूर्ति हुई तो सोचा कि अल्बर्ट हॉल म्यूज़ियम चला जाये। ऑटो करके 3 बजे वहां पहुंच गये। प्रवेश टिकट के लिये खिड़की की ओर बढ़े तो बाहर प्रवेश द्वार के निकट ठीक बीच चौराहे पर सैंकड़ों कबूतर दिखाई दिये जिनको वहां लोग दाना – पानी आदि डालते हैं। जैसे ही कोई बड़ी गाड़ी निकट से गुज़रती है, सारे कबूतर पंख फड़फड़ाते हुए अल्बर्ट हॉल की गुम्बद व झरोखों पर जा विराजते हैं। वाहन गुज़र जाने के बाद दाना चुगने के लिये अगले ही क्षण पुनः सड़क पर आज बैठते हैं। दाना बेचने वालों ने वहां अपनी दुकानें भी लगा रखी हैं और लोग आते हैं, श्रद्धा भाव से दाना खरीदते हैं और कबूतरों को डाल देते हैं। यह उन मंदिरों से तो बेहतर ही है जहां प्रसाद में चढ़ाये हुए नारियल और चुनरी शाम को पुनः प्रसाद की दुकान पर लाकर बेच दिये जाते हैं।
अल्बर्ट हॉल का विवरण पढ़ने के लिये इस लिंक का उपयोग करें।
अल्बर्ट हॉल से बाहर निकले तो लगभग 5 बज रहे थे। यह निश्चय किया गया कि आमेर फोर्ट चला जाये। वहां रात्रि में लाइट एंड साउंड शो भी होता है। जयपुर पहुंचने से पहले इंटरनेट की खाक़ छानते समय मैने पढ़ा था कि आमेर फोर्ट को देखने के लिये दो तरीके हैं – दिन में और रात में ! दिन का टिकट 25 रुपये और रात्रि में 100 रुपये। मैने आमेर फोर्ट के रात्रि में लिये हुए फोटो देखे थे और मेरी इच्छा थी कि रात्रि में ही आमेर फोर्ट को देखा जाये और कुछ अच्छे फोटो लेने का प्रयास किया जाये। रात के मद्धिम प्रकाश में वह चीज़ें भी आकर्षक और सुन्दर लगने लगती हैं जो सुबह को सूर्य के प्रकाश में अपनी पूरी विद्रूपता के साथ प्रकट होती हैं और डरावनी लगती हैं! प्रिय पाठकों से अनुरोध है कि कृपया इसे अन्योक्ति न समझें, मैं सिर्फ आमेर फोर्ट की पुरानी पड़ चुकी दीवारों व भित्ति चित्रों की ही बात कर रहा हूं, मेरा इशारा कहीं और कतई नहीं है।
आमेर फोर्ट जाने और वापस लाने के लिये जब टैम्पो से बात की तो उसने 800 रुपये बताये जो निश्चय ही स्वीकार्य नहीं थे। झक-झक करके अन्ततः 500 रुपये में बात तय हुई और हम दोनों चल दिये आमेर फोर्ट की ओर। जब हमारा टैम्पो पुराने जयपुर यानि पिंक सिटी में प्रविष्ट हुआ तो मैं बड़ी तन्मयता से देश की इस सबसे प्राचीन सुनियोजित तरीके से बनाई गयी नगरी के मुख्य मार्गों, बड़ी चौपड़ों, छोटी चौपड़ों और वीथिकाओं को निहारता रहा। आपने संभवतः पढ़ा ही होगा कि सवाई राजा जयसिंह द्वितीय ने आमेर नगरी को जनता कि आवश्यकताओं के लिये अपर्याप्त मानते हुए एक नये शहर जयपुर की नींव सन् 1727 में रखी थी। राजा स्वयं भी एक विद्वान खगोलशास्त्री थे और वास्तुशास्त्र पर आधारित इस विशाल नगरी का आयोजना व निर्माण करने में राजा के सहायक थे विद्याधर भट्टाचार्य जो अपने समय के बहुत बड़े वास्तुशास्त्री थे। जयपुर नगरी के लिये स्थान का चयन करने में मुगल आक्रान्ताओं से सुरक्षा का प्रमुख ध्येय था इसीलिये नगरी ऐसे स्थान पर बसाई गई जहां उसके उत्तर में आमेर, उत्तर पश्चिम में जयगढ़ दुर्ग और नाहरगढ़ दुर्ग मौजूद थे। दिल्ली की ओर से किसी भी सेना के आगमन की पूर्व सूचना जयगढ़ और नाहरगढ़ दुर्ग के ऊंचे – ऊंचे परकोटों पर मौजूद सैनिक तुरन्त दे सकते थे। खुद जयपुर नगरी की सुरक्षा के लिये चारों दिशाओं में विशाल परकोटा और सात द्वार बनाये गये। उत्तर दिशा यानि आमेर की ओर से प्रवेश के लिये सिर्फ एक द्वार, पूर्व में सूरज पोल, पश्चिम दिशा में चांद पोल और दक्षिण दिशा में अजमेरी गेट (किशन पोल), सांगानेरी गेट (शिव पोल), घाट गेट (राम पोल) और न्यू गेट (मान पोल) बनाये गये। पूरे शहर को 3 x 3 इस प्रकार नौ वर्गाकार इकाइयों में बांटा गया। नगर के मध्य की दो इकाइयां राजसी भवनों के लिये और बाकी सात प्रजा के लिये बनाई गईं। प्रत्येक दो इकाइयों के बीच में मुख्य राजमार्ग बनाये गये जो उत्तर से दक्षिण की ओर तथा पूर्व से पश्चिम दिशा कि ओर समकोण में बनाये गये। मुख्य मार्गों की चौड़ाई 111 फीट, अन्य प्रमुख सड़कों की चौड़ाई 55 फीट तथा गलियों की चौड़ाई 27 फीट रखी गई। हर वह बड़ी चौपड़ यानि मुख्य चौराहा जहां पर 111 फीट चौड़ी सड़क आकर मिलती है, उसकी चौड़ाई 222 फीट रखी गई। जयपुर की वास्तुकला आयोजना को ठीक से समझना हो तो रात्रि में बाज़ार बन्द हो जाने के बाद या सूर्योदय के समय सड़कों पर निकलना चाहिये जब सड़कें सुनसान हो जायें। तभी हम जयपुर की आयोजना के सौन्दर्य को ठीक से समझ व अनुभव कर सकते हैं।
अभी हम आमेर जाने के लिये जयपुर नगरी के मध्य से उत्तर दिशा की ओर बढ़ रहे थे जहां सिर्फ भीड़ और भीड़ ही नज़र आ रही थी। अचानक हमारे टैम्पो वाले ड्राइवर भाई जी ने अपना वाहन एक गली की ओर घुमा दिया और हमसे कहा कि आप यहां पर सामान देखिये, खरीदने की कोई जरूरत नहीं है, बहुत वाज़िब दाम पर माल मिलता है, कुछ अच्छा लगे तो ठीक वरना कोई बात नहीं ! बस, मुझे तो गुस्सा आगया और हम दोनों टैम्पो में ही धरना दे कर बैठ गये और चालक को आदेश दिया कि टैम्पो तुरन्त वापिस घुमाये और आमेर की ओर चले। बेचारा मुंह लटका कर पुनः अपनी सीट पर आ बैठा और हम पुनः चल पड़े आमेर की ओर !
पुराने शहर की भीड़भाड़ वाली गलियों से बाहर निकल कर जब हम मुख्य राजमार्ग पर आये जो आमेर के बगल से होते हुए दिल्ली की ओर जाता है, तो वहीं हमें अपनी दाईं ओर एक झील और उसमें एक महल दिखाई दिया तो हमने तुरन्त निष्कर्ष निकाल लिया कि हो न हो ये जल महल ही है। सूर्य के पीताभ हो रहे प्रकाश में पीले रंग का ये महल हमें दूर से कतई सुन्दर नहीं लगा। कम से कम यह उदयपुर के जल महल के तो पासंग भी नहीं ठहरता जो अपने सफेद रंग के कारण पिछोला झील में नगीने की तरह चमकता दिखाई देता है। आगे बढ़े तो बाईं ओर एक रास्ता मुड़ता हुआ दिखाई दिया जो वहां लगे संकेतक के अनुसार जयगढ़ व नाहरगढ़ फोर्ट की ओर ले जाता है। पर हम तो उस समय आमेर फोर्ट की ओर जाना चाह रहे थे सो सीधे ही आगे बढ़ते रहे।
कहानी अभी जारी रहेगी ! आमेर फोर्ट तक हमे पहुंच भी पाये या नहीं, पहुंचे तो कहां तक पहुंचे, लाइट व साउंड शो देखा या नहीं, वापसी में क्या – क्या घटनाक्रम रहा, अगले दिन क्या-क्या किया, कहां – कहां घूमें, यह जानने के लिये तनिक प्रतीक्षा करें ! हम शीघ्र ही इस श्रंखला का अगला भाग लेकर लौटेंगे!
आदरणीय, शुरुआत बढ़िया रही, अगले भाग का कौतूहल जग गया है । आमेर फोर्ट तो हमने भी देखा है, लेकिन दिन में । अब आपकी करिश्माई नजरों से रात का नजारा देखने की अभिलाषा है ।
सुन्दर जानकारी सर जी ऑटो वाले कमिसन के चक्कर में होते है
बिल्कुल सही कहा विनोद, उस ऑटो वाले का यही प्लान था कि हम अगर शो रूम में घुस गये तो कुछ न कुछ तो खरीद ही लेंगे। पर हमने भी धूप में थोड़ा ही बाल सफेद किये हैं! 😀